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*सदा सोच रहत घट भीतर, मन थिर कैसे कीजे रे ।*
*सहजैं सहज साधु की संगति, दादू हरि भजि लीजे रे ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद. ३३९)
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*मन का अंग १५२*
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माँड१ मथाणी काढली, मन समुद्र में जोय ।
जन रज्जब चंचल अजों२, पेच३ पड़था है कोय ॥४५॥
समुद्र में ही मंदराचल रूप, मथनी निकालने पर भी वह अब२ तक चंचल ही है । वैसे ही मन में से ब्राह्मण्ड१ की भावना रूप मथाली निकालने पर भी यह अभी तक चंचल ही है । इसमें ऐसा ही कोई फंद३ पड़ा हुआ है जिससे इसकी चंचलता नहीं मिटती ।
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मन मनसा जोड़ा चपल, राख्या रहै न ठौर ।
बांधे बंधै सु ब्रह्म के, आन उपाय न और ॥४६॥
मन और मन के मनोरथ ये दोनों ही चंचल हैं, रखने पर भी एक स्थान पर नहीं रहते । ये दोनों ब्रह्म के बांधने से ही बंध सकते हैं और कोई दूसरा उपाय इनके बांधने का नहीं है ।
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काष्ठ करी पावक प्रकट, सो जल जुगति बुझान ।
रज्जब जल में जलि उठे, मनवा बीज समान ॥४७॥
काष्ठ से अग्नि प्रकट होती है, वह तो जल डालने रूप युक्ति से बुझ जाता है किंतु मन तो जल में से जल उठने वाली बिजली के समान है । बिजली जल से नहीं बुझती, वैसे ही मन साधारण उपायों से नहीं जीता जाता ।
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नागदवनि मृग सींग मन, इन के बंक१ न जांहिं ।
रज्जब सांई साल२ सुध३, सो क्यों मांहि समाहि ॥४८॥
नागदमनी के वृक्ष की लकड़ी, मृग का सींग और मन, इनकी वक्रता१ दूर नहीं होती । सीधे३ छिद्र२ में जगदमनी की लकड़ी और मृग का सींग प्रवेश नहीं कर सकता, वैसे ही शुद्ध२ स्वरूप प्रभु में मन नहीं समा सकता ।
(क्रमशः)
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