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*यहु घट दीपक साध का, ब्रह्म ज्योति प्रकाश ।*
*दादू पंखी संतजन, तहाँ परैं निज दास ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(३)
*केवल पाण्डित्य व्यर्थ है । साधना तथा विवेक-वैराग्य*
समाधि की बात कहते ही कहते श्रीरामकृष्ण का भाव बदलने लगा । उनके श्रीमुख से स्वर्गीय ज्योति निकलने लगी । देखते देखते बाह्य-ज्ञान जाता रहा, शब्दरहित हो गये, आँखें स्थिर हो गयीं । वे इस समय परमात्मा के दर्शन कर रहे हैं । बड़ी देर बाद प्राकृत अवस्था आयी । बालक की तरह कह रहे हैं, मैं पानी पीऊँगा । समाधि के बाद जब पानी पीना चाहते थे, तब भक्तों को मालूम हो जाता था कि अब ये क्रमशः बाह्य भूमि पर आ रह हैं ।
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श्रीरामकृष्ण भावावेश में कहने लगे, 'माँ, उस दिन ईश्वरचन्द्र विद्यासागर को तूने दिखलाया । इसके बाद मैने फिर कहा था, माँ, मैं एक दूसरे पण्डित को देखूँगा, इसीलिए मुझे यहाँ लायी ।'
फिर शशधर की ओर देखकर कहने लगे - "भैया, कुछ और बल बढ़ाओ, कुछ दिन और साधन-भजन करो । पेड़ पर अभी चढ़े नहीं और अभी से फल की आकांक्षा ! परन्तु लोगों के भले के लिए तुम यह सब कर रहे हो ।"
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इतना कहकर श्रीरामकृष्ण शशधर को सिर झुकाकर नमस्कार कर रहे हैं । फिर कहने लगे –
"जब पहले-पहल मैंने तुम्हारी बात सुनी, तो लोगों से पूछा, सिर्फ पण्डित है या कुछ विवेक-वैराग्य भी है ?
"जिस पण्डित के विवेक नहीं, वह पण्डित ही नहीं ।
"अगर आदेश मिला हो तो लोक-शिक्षा में दोष नहीं । आदेश पाने पर अगर कोई लोक-शिक्षा देता है, तो फिर उसे कोई पराजित नहीं कर सकता ।
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“सरस्वती के पास से अगर एक भी किरण आ जाय तो ऐसी शक्ति हो जाती है कि बड़े-बड़े पण्डित भी सिर झुका लेते हैं ।
"दिया जलाने पर, झुण्ड के झुण्ड कीड़े इकट्ठे हो जाते हैं, उन्हें बुलाना नहीं पड़ता । उसी तरह जिसे आदेश मिला है, उसे आदमियों को बुलाना नहीं पड़ता । अमुक समय में लेक्चर होगा, यह कहकर खबर नहीं भेजनी पड़ती; उसी में आकर्षण होता है और इतना कि आदमी आप खिचकर आ जाते हैं ।
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तब राजा, बाबू, सभी स्वयं ही दल बाँध-बाँधकर उसके पास आते हैं और कहते रहते हैं, 'आपको क्या चाहिए ? आम, सन्देश, रुपया, पैसा, दुशाले, यह सब ले आया हूँ, आप क्या लीजियेगा ?" मैं उन आदमियों से कहता हूँ, 'दूर करो, यह कुछ मुझे अच्छा नहीं लगता, मैं कुछ नहीं चाहता ।'
"चुम्बक-पत्थर क्या लोहे से कहेगा कि मेरे पास आओ ? कहना नहीं होता । लोहा आप ही चुम्बक-पत्थर के आकर्षण से आ जाता है ।
(क्रमशः)
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