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*मन ताजी चेतन चढै, ल्यौ की करै लगाम ।*
*शब्द गुरु का ताजणां, कोइ पहुंचै साधु सुजाण ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ मन का अंग)*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*मन का अंग १५२*
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मन पवंग१ तन तोय२ गति, ता पर करहि जु मघ३ ।
रज्जब अस अहवार है, इल४ ऊपरि सु अनघ ॥६९॥
मन तो घोड़े१ के समान है और शरीराध्यास जल२ के समान है । जो घोड़े पर चढ़कर जल पर मार्ग३ करता है अर्थात चलता है वही सवार पृथ्वी४ लोक में श्रेष्ठ माना जाता है । वैसे ही जो मन पर चढ़कर देहाध्यास के ऊपर चलता है अर्थात देहाध्यान से मन को ऊँचा उठाता है वही साधक भूलोक में निष्पाप माना जाता है ।
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जन रज्जब मन के तले१, चौरासी लख जीव ।
इस ऊपरि असवार ह्वै, सो कोउ पावे पीव ॥७०॥
चौरासी लाख जीव सभी मन के नीचे१ है अर्थात अधीन है । इस मन पर सवार
होता है अर्थात इसे जीतता है, वह कोई विरला संत ही प्रभु को प्राप्त करता है ।
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जिन प्राणी मन वश किया, ताके वश सब मांड१ ।
जन रज्जब मन वश बिना, देखि दुनी२ ह्वै भांड३ ॥७१॥
जिस प्राणी ने मन को वश मे कर लिया है, उसके वश में सभी ब्रह्माण्ड१ है और देखो, मन में वश किये बिना संसार२ के प्राणी व्यर्थ ही बरबाद३ हो रहे हैं ।
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रज्जब राक्षस मन्न१ का, चारा२ चार्यों खानि ।
हंस३ बचै कोउ हेत४ रज५, हुआ अमर सो जानि ॥७२॥
जरायुज, अंडज, उदभिज, स्वेदज इन चारों खानि के जीव मन१ रूप राक्षस का भोजन२ है । कोई परमहंस-संत३ ही प्रभु-प्रेम४ और ज्ञान-प्रकाश५ के द्वारा इससे बचता है । जो बचता है, उसे अमर हुआ अर्थात ब्रह्म को प्राप्त हुआ ही जानना चाहिये ।
(क्रमशः)
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