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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१५. माया कौ अंग ~ १७३/१७६*
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चित बिलास चित मंहि रहै, चक्रित५ चंचल सोइ ।
कहि जगजीवन अच्यंत चेतवत, सहजैं निहचल होइ ॥१७३॥
(५. चक्रित=चकित=आश्चर्य मानता हुआ)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि चित का ऐश्वर्य तो सदा जीव के चित में रहता है व वह आश्चर्यचकित होता है । यदि वह सोच से परे विराजमान प्रभु के बारे में चित लगाये तो वह सहज ही निश्चल होगा ।
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अनबंछ्यौ आवै नहीं, अनंत मनोरथ मांहि ।
कहि जगजीवन रांम घर, (ताथैं ऐ) सखी सुहागिन नांहि ॥१७४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अनंत मनोरथ होने से भी अनंत वस्तुएं प्राप्त नहीं होती अतः तभी परमात्मा के घर में रह कर जीव परमात्मा नहीं होता(सुहागिन नहीं होता) है । परमात्मा का हो जाना ही जीव का सुहागिन होना कहा है ।
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माया बांछै जीव सब, पंच तत्त की चाह ।
कहि जगजीवन चाह बिन, कोइ जन हरि गुन गाइ ॥१७५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सभी जीव माया की कामना करते हैं । यह पंचभौतिक देह की मांग है । ऐसा कोइ विरला ही जीव है जो बिना चाह के निष्काम भाव से भजन करता हो ।
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चाह निरंजन नांउं की, रांम ह्रिदै मंहि एक ।
कहि जगजीवन आदि घर६, ते सुख लहैं अनेक ॥१७६॥
{६. आदि घर=आदिगृह(परमात्मा का स्थान)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि एक परमात्मा के नाम की ईच्छा ही मन में रहनी चाहिए । उसी से परमात्मा के घर में अनेक सुख मिलते हैं ।
(क्रमशः)
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