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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज,व्याकरण वेदांताचार्य श्रीदादू द्वारा बगड़,झुंझुनूं ।
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #. ५)*
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*५. विरह विलाप । षटताल*
*जियरा क्यों रहै रे, तुम्हारे दर्शन बिन बेहाल ॥टेक॥*
*परदा अंतर कर रहे, हम जीवैं किहिं आधार ।*
*सदा संगाती प्रीतमा, अब के लेहु उबार ॥१॥*
*गोप्य गुसांइ ह्वै रहे, अब काहे न प्रकट होइ ।*
*राम सनेही संगिया, दूजा नांही कोइ ॥२॥*
*अन्तरयामी छिप रहे, हम क्यों जीवैं दूर ।*
*तुम बिन व्याकुल केशवा, नैन रहे जल पूर ॥३॥*
*आप अपरछन ह्वै रहे, हम क्यों रैनि बिहाइ ।*
*दादू दर्शन कारणै, तलफ तलफ जीव जाइ ॥४॥*
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भा० दी०- हे प्रभो मम मनसि कथं शान्तिरूदियात् । भवतो दर्शनं बिना मे मनो व्याकुली भवति । अन्तस्थःसन्नपि कथमावृत्तोऽसि । त्वमेव मे वद् । त्वदृतेऽस्माकं जीवनं कथं भवेत् । हे प्रिय राम ! अस्मिन्नेव जन्मनि मामुद्धर। अन्यस्मिञ्जन्मनि तु ज्ञानाभावान्नैतादृशी सुविधा भवेत् । हे स्वामिन् कस्माताच्छन्नोऽसि । कथं न प्रकटीभवसि। हे प्रियराम ! त्वां विनानान्यः सहायः । कस्मात्प्रच्छन्नोऽसि । आविर्भव । अन्यथाऽस्माकं जीवनमेव नक्ष्यति । हे केशव ! भवदर्शनार्थं मे मनः समुत्कण्ठते । नेत्राम्यां सततमश्रुधारा वहति । ततोऽपि भवान् कथं नाविर्भवति । कथं भवतो दर्शनं विनाऽऽयुर्व्यतीयात् । मम प्राणास्तु भवदर्शनाय बहिर्गन्तु त्वरते । अतो दर्शनं देहि । नहि तेषां वियोगसहनस्य क्षमताऽस्ति । दूरस्थिते व्यवहिते परमात्मनि स्वाभाविकं स्वारसिकमकैतवं प्रेम नोद्भवति । किन्त्वत्यन्तसन्निहिते प्रत्यगात्मन्येवाकैतवं प्रेम केषाञ्चिदेवाविर्भवति ।
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हे प्रभो ! मेरे मन में कैसे शान्ति हो ? आपके दर्शनों के बिना तो मेरा मन व्याकुल हो रहा है । आप मेरे अन्तःकरण में स्थित होकर भी क्यों, अज्ञान के पड़दे के पीछे छिपे हुए हैं ।
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आप ही कहिये, आपके बिना हमारा जीवन कैसे हो सकता है ? हे मेरे प्रियतम परमात्मन् ! इसी जीवन में मेरा उद्धार कर दीजिये अन्यथा आगे आने वाले जन्म में तो ऐसी सुविधा नहीं मिल सकेगी, क्योंकि ये सब योनि तो ज्ञानहीन हैं ।
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हे परमेश्वर ! आप किस कारण से छिप रहे हैं, प्रकट क्यों नहीं होते ? आपके बिना मेरा कोई संगी साथी नहीं है । अतः आप प्रकट हो जाइये । अन्यथा हमारा जीवन ही नष्ट हो जायगा ।
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हे केशव ! आप के दर्शनों के बिना तो मेरा मन व्याकुल हो रहा है । नेत्रों से रात दिन प्रेमाश्रुओं की धारा चलती रहती है फिर आप प्रकट क्यों नहीं होते ? आपके दर्शनों के बिना मेरी यह आयु कैसे पूरी होगी ? मेरे प्राण तो आपके दर्शनों के लिये बाहर जाने की जल्दी कर रहे हैं । अब तो आपको दर्शन देना ही चाहिये ।
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प्रेम में जरा से भी व्यवधान को सहन करने की क्षमता नहीं होती । दूरस्थ तथा व्यवहित परमात्मा में स्वाभाविक छल रहित प्रेम नहीं होता । किन्तु अत्यन्त सन्निहित प्रत्यगात्मा में छल रहित प्रेम किसी का ही देखा जाता है ।
लिखा है कि- मनुष्य लोक में छल-रहित प्रेम नहीं होता, यदि होता तो फिर किसका विरह, और यदि विरह हो जाय तो जीवन कैसा ?
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श्री रूपगोस्वामीजी ने लिखा है कि- जब तक साधक के हृदय में कर्म से प्राप्त भोगों के प्रति तथा ज्ञान से प्राप्त मोक्ष में प्रति अंशतः भी रुचि बनी रहेगी तो उसके हृदय में भक्तिरस का प्रादुर्भाव नहीं होगा ।
(क्रमशः)
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