सोमवार, 10 मई 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #. ६

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
https://www.facebook.com/DADUVANI
भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज,व्याकरण वेदांताचार्य श्रीदादू द्वारा बगड़,झुंझुनूं ।
.
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #. ६)*
.
*६. विरह हैरान । त्रिताल*
*अजहूँ न निकसैं प्राण कठोर ।*
*दर्शन बिना बहुत दिन बीते, सुन्दर प्रीतम मोर ॥टेक॥*
*चार पहर चारों युग बीते, रैनि गँवाई भोर ।*
*अवधि गई अजहूँ नहिं आये, कतहूँ रहे चित-चोर ॥१॥*
*कबहूँ नैन निरख नहिं देखे, मारग चितवत तोर ।*
*दादू ऐसे आतुर विरहनी, जैसे चंद चकोर ॥२॥*
.
भा०दी०- अयि सुन्दरतम ! प्रियतम ! परमात्मन् ! दर्शनं बिना बहूनि दिनानि व्यतीतानि । इमे मे प्राणा: वज्रसारा: दृढ़बला: इति शरीरं न त्यजन्ति । आयुषश्च तिस्त्रोवस्था बाल्यादयोऽपि व्यतीताः । इदानीं वार्धक्यं मेऽस्ति । शरीराभिमानोऽपि निर्गलितः । परन्त्वद्यावधि दर्शनं न जातं, किं कारणमितिभवानेव वेत्ति । मदीयं चित्तं चोरयित्वा कुत्र निलीनोऽसि । अहं तु सततं दर्शनपथं दर्श दर्श श्रान्तोऽस्मि । नाद्यावधि त्वदीयं दर्शनं जातम्। किं बहुना ? भवतो दर्शने चन्द्रदर्शने चकोर इव मे चित्तं द्रवीभवति । चित्तस्य स्वभावोऽयं यल्लौकिकालौकिकवस्तुदर्शनेन श्रवणेन, मननेन
निदिध्यासेन च तत्तदाकारतामाप्नोति ।
.
हे सुन्दर से भी सुन्दर ! मेरे प्यारे प्रभो ! दर्शनों के बिना बहुत दिन बीत गये तथा ये मेरे प्राण भी वज्र के सदृश बड़े कठोर हैं, जो इस शरीर का त्याग कर ही नहीं पाते । मेरी आयु की चारों अवस्थाएँ भी व्यतीत हो गई । अब तो वृद्धत्व आ गया है तथा शरीर का अभिमान भी गल गया, फिर भी आपके अब तक भी दर्शन नहीं हुए । इसमें क्या कारण है ? यह आप ही जानें ।
.
मैं तो आपके दर्शनों के लिए जो रास्ता है, उसको देखते-देखते थक गया हूँ । मेरे चित्त को चुरा कर आप कहाँ पर रुके हुए हैं ? अधिक क्या कहूँ ? जैसे चकोर चन्द्र-दर्शन के लिए लालायित रहता है, ऐसे ही मेरा चित्त भी आपके दर्शनों के लिए द्रवीभूत हो कर ललचा रहा है । चित्त का यह स्वभाव है कि वह लौकिक, अलौकिक वस्तु के दर्शन, श्रवण, मनन से उस वस्तु के आकर वाला बन जाता है ।
.
अतः भक्तों ने द्रवीभूत चित्त में जो स्थिर गोविन्दाकार वृत्ति होती है, उसी को भक्ति कहा है । यद्यपि चित्त एक ही है, तथापि दृश्यभेद से, श्रव्यभेद से, मन्तव्य भेद से, नाना आकार वाला बन जाता है । जैसे चित्त में काम, क्रोध, द्वेष, भय, हर्ष, शोक आदि की वृत्ति पैदा होती है, वैसे ही भक्ति, वैराग्य, विवेक आदि वृत्ति भी पैदा होती है ।
.
रसरत्नाकर में लिखा है कि – “चित्त को लाख के समान कठोर कहा है, कामादि दोषों के प्रविष्ट होते ही वह पिघल जाता है । जैसे – पिघली हुई लाक्षा में जो रंग मिला दिया जाय तो वह लाक्षा कठिन होने पर उस रंग को नहीं छोड़ती । इसी प्रकार चित्त में यद्यपि वासना रूप से कामादि दोष सदा बने रहते हैं, किन्तु जब भक्त का मन दिव्यातिदिव्य मंगलमय भगवान् के विग्रह का चिन्तन-मनन करता है या दिव्य लीलाओं को सुनता है या कथनोपकथन करता है तो वासना के निवृत्त हो जाने पर द्रवीभूत चित्त की जो भगवदाकारता है, वह ही भक्ति कहलाती है । इसी अभिप्राय से इस भजन में श्री दादूजी ने भी भक्ति का लक्षण प्रतिपादित किया है कि जैसे चकोर के चित्त में चन्द्रमा वसा रहता है, वैसे ही मेरे चित्त में प्रभु विराजते हैं ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें