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*दादू ब्रह्म जीव हरि आत्मा, खेलैं गोपी कान्ह ।*
*सकल निरन्तर भर रह्या, साक्षीभूत सुजान ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साक्षीभूत का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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यह कहकर श्रीरामकृष्ण अपने मधुर कण्ठ से गाने लगे –
“ऐ मन, रूप के समुद्र में तू डूब जा, तलातल और पाताल तक में जब खोज करेगा, तब वह प्रेम रत्न तेरे हाथ लगेगा ।”
(प्रताप से) "गाना सुना ? लेक्चर और झगड़ा यह सब तो बहुत हो चुका, अब डुबकी लगाओ । और इस समुद्र में डूबने से फिर मरने का भय न रह जायगा, यह तो अमृत का समुद्र है ! यह न सोचना कि इससे आदमी का दिमाग बिगड़ जाता है । यह न सोचना की ज्यादा ईश्वर ईश्वर करने से आदमी पागल हो जाता है ।
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मैंने नरेन्द्र से कहा था –
प्रताप - महाराज, नरेन्द्र कौन ?
श्रीरामकृष्ण - है एक लड़का । मैंने नरेन्द्र से कहा था, ईश्वर रस का समुद्र है । क्या तेरी इच्छा इस रस के समुद्र में डुबकी लगाने की नहीं होती ? अच्छा, सोच, एक नाँद में रस है और तू मख्खी हो गया है, तो कहाँ बैठकर रस पायेगा ? नरेन्द्र ने कहा, मैं नाँद के किनारे पर बैठकर रस पीऊँगा । मैंने पूछा, क्यों ? किनारे पर क्यों बैठेगा ?
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उसने कहा, ज्यादा बढ़ जाऊँगा तो डूब जाऊँगा और जान से भी हाथ धोना होगा । तब मैंने कहा, बेटा, सच्चिदानन्द-समुद्र में वह भय नहीं है । वह तो अमृत का समुद्र है, उसमें डुबकी लगाने से मृत्यु का भय नहीं है । आदमी अमर हो जाता है । ईश्वर के लिए पागल होने से आदमी का सिर बिगड़ नहीं जाता ।
(भक्तों से) “मैं और मेरा, इसे अज्ञान कहते हैं । रासमणि ने कालीमन्दिर की प्रतिष्ठा की है, यही बात लोग कहते हैं । कोई यह नहीं कहता कि ईश्वर ने किया है ।
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ब्राह्म समाज अमुक आदमी ने तैयार किया, यही लोग कहेंगे, कोई यह न कहेगा कि ईश्वर की इच्छा से यह हुआ है । मैंने किया, यह अज्ञान है । हे ईश्वर तुम कर्ता हो, मैं अकर्ता, तुम यन्त्री हो, मैं यन्त्र; यह ज्ञान है । हे ईश्वर, मेरा कुछ भी नहीं है - न यह मन्दिर मेरा है, न यह कालीबाड़ी न यह समाज, ये सब तुम्हारी चीजें हैं । यह स्वी, पुत्र, परिवार, कुछ भी मेरा नहीं । सब तुम्हारी चीज़े हैं; इसी का नाम ज्ञान है ।
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"मेरी वस्तु, मेरी वस्तु कहकर, उन सब चीजों को प्यार करना ही माया है । सब को प्यार करने का नाम दया है । मैं केवल ब्राह्म समाज के आदमियों को प्यार करता हूँ या अपने परिवार के मनुष्यों को, यह माया है । केवल देश के आदमियों को प्यार करता हूँ, यह माया है । सब देशों के मनुष्यों को प्यार करना, सब धर्मों के लोगों को प्यार करना, यह दया से होता है, भक्ति से होता है ।
"माया से आदमी बँध जाता है, ईश्वर से विमुख हो जाता है । दया से ईश्वर की प्राप्ति होती है । शुकदेव, नारद, इनमें दया थी ।"
(क्रमशः)
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