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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१५. माया कौ अंग ~ २१३/२१६*
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जे भ्रम मांहि समीप था, अब क्यूं बिछुड्या७ आइ ।
कहि जगजीवन धर्या की, चित मांहि बरती चाहि ॥२१३॥
(७. बिछुड्या=अलग हुआ)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि भ्रम वश जो समीप था ज्ञान होते ही वह दूर कैसे होगया । जीव धरती पर बने संबधों को ही प्रभु के समझ बैठता है जबकि संसारिक सभी सबंध संतजन कहते हैं कि मिथ्या हैं ।
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कहि जगजीवन चिर८ अचिर९, प्रवरति का फल एह ।
तन थैं त्यागैं ते लहैं, तहां हरि रांम विदेह ॥२१४॥
(८. चिर=बहुत काल) (९. अचिर=तत्काल)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि देर सवेर किसी का मिलना यह सब जीव की प्रवृत्ति अनुसार होता है । जो दैह से भौतिक पदार्थ त्यागते हैं वे ही देह से परे राम के ब्रह्म स्वरूप को पाते हैं ।
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कहि जगजीवन परेवो१०, कंकर पत्थर खाइ ।
छिन छिन मांही बिषै रत, रांम बिमुख मर जाइ ॥२१५॥
(१०. परेवा=कबूतर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव कबूतर की भांति विषय रुपी कंकर पत्थर चुगता रहता है और बार बार विषयों में रत रह कर राम विमुख ही इस जीवन से पलायन कर लेता है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, मांसअहारी सिंह ।
बारह बरस मैं एक दिन, अंग स्यूं परसै अंग ॥२१६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि किवदंती के अनुसार जीव का भाग्य बारह बरस में तो पलटता है पर ऐसा कुछ नहीं है भाग्य केवल आचरण से बदलता है । जैसे सिंह नित्य मांसाहारी है तो क्या भाग्यानुसार उसे उसी कृत्य में रत रहने पर भी प्रभु परसेगें । नहीं । वह तो आचरण की शुद्धता से ही मिलेंगे ।
(क्रमशः)
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