मंगलवार, 22 जून 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ ४५/४८*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१६. सांच कौ अंग ~ ४५/४८*
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हरि भजि मनसा हाथ करि, करै न हरि की टहलि८ ।
जगजीवन हरि चरण मंहि, प्रांणन पकड्या फैलि९ ॥४५॥
(८. टहलि=सेवा) {९. प्रांणन पकड्या फैलि=प्राणों ने पसर कर(दण्डवत् कर) हरिचरणों को पकड़ लिया है}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन आशा से हरिभजन व हाथों से प्रभु स्वरूप की सेवा व देह हरिचरणों में समर्पित हो ।
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कहि जगजीवन धरणि जल, अनल पवन इक नांम ।
सोधि अकास समाइ ले, रसानां हरि हरि रांम ॥४६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि धरती, जल वायु अग्नि सभी में एक ही परमात्मा का नाम व्याप्त है ध्यान द्वारा शून्य में सिमट कर है जिह्ला राम स्मरण में ही रत रह ।
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रसानां हरि हरि रांमजी, उनमनि चढै अकास ।
कहि जगजीवन नांउ रत, प्रगट रमै पिव प्यास ॥४७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि है जिह्ला स्मरण से ही जीव शून्य को प्राप्त हो उंचाई तक पहुंचता है । यह उदासीनता है जो जन इस प्रकार नाम में रत है उनकी पिपासा स्वयं प्रभु प्रकट होकर शांत करते हैं ।
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ऐ पग थाके ओ भये, उन ऐ लागौ दोइ ।
कहि जगजीवन उभै तजि, हरि पंथ दौड़ै कोइ ॥४८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस संसार में भाग भाग कर थक गये व निराश होगये, संत कहते हैं इनको दोनों को संसार के साधन व प्रयास को छोड़कर हरि मार्ग की और कोइ विरला ही दौड़ता है ।
(क्रमशः)

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