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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१६. सांच कौ अंग ~ ५३/५६*
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दोजग४ की करतूति५ करि, अल्लह दर दिलगीर ।
कहि जगजीवन ज्वान६ जईफ७, खुरद कनौं सिन सीर ॥५३॥
{४. दोजग=दोजख(=नरक)} {५. करतूत=क्रिया(=पापकर्म)}
{६. ज्वान=जवान(युवक)} (७. जईफ=वृद्ध)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हमारे कार्य तो नर्क योग्य हो और मन से अल्लाह या ईश्वर की कामना करें तो वह कैसे मिलेंगे । फिर चाहे जन युवा हो या वृद्ध प्रभु सबको भगा देते हैं अपनी शरण में नहीं रखते ।
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बुतखाना८ बीरान हसि, आतस९ अंदरि हूद१० ।
कहि जगजीवन भ्रमै अलह तजि,क्या ब्राह्मण क्या सूद११ ॥५४॥
(८. बुतखाना=मूर्तीपूजा का मन्दिर) (९. आतस=अग्नि)
(१०. हूद=हवन) {११. सूद्र=शूद्र(हिन्दुओं में चतुर्थ वर्ण)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मंदिर वीरान होंगे व अतंर में दाह होगी संत कहते हैं कि ये सब भ्रम है जो हम ईश्वर या अल्लाह को छोड़कर व्यर्थ के कलापों में मग्न रहते हैं चाहै वो ब्राह्मण हो या शुद्र ।
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परमेसुर मोनै नहीं, आत्म आंन प्रकास ।
सत्य सबद मुख रांम कहि, सुकहि जगजीवनदास ॥५५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा मौन नहीं आत्मज्ञान रुपी प्रकाश है जो सत्य शब्द है राम वह ही मुख से कहो ।
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कहि जगजीवन सांच हरि, नख सिख रह्या समाइ ।
एक भर्या परि जे भरै, ते घर जाइन भाइ ॥५६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि एक सत्य परमात्मा का स्वरुप है जो हमारे नख शिख में समा रहा है उस एक के परिपूर्ण होने से ही सभी पूर्ण जहाँ होते हैं वहां ही प्रभु को पहुंचना अच्छा लगता है ।
(क्रमशः)
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