शनिवार, 26 जून 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ ६१/६४*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१६. सांच कौ अंग ~ ६१/६४*
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अल्लह दोस न दीजिये, काजी७ कजा८ कबूल९ ।
कहि जगजीवन कलमा१० वो, ज्यूं कलियन मैं फूल ॥६१॥
(७. काजी=न्यायधीश) (८. कजा=निर्णय) (९. कबूल=स्वीकार करना) (१०. कलमा=मुस्लिम धर्म का मूल मन्त्र)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अल्लाह को दोष न दें जो उनका निर्णय है वह स्वीकार करें । उनके द्वारा दिया मंत्र ऐसै है जैसे कलियों में फूल की सम्भावना ।
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पंच समेटि११ समेटि मन, सुरति समेटि समाइ ।
कहि जगजीवन देहुरे१२, राखौ भगति जगाइ ॥६२॥
(११. समेटि=संकुचित कर) (१२. देहुरे=देवमन्दिर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि पांचों ज्ञान इन्द्रियों को समेटकर मन को समेटे फिर सुरति यानि ध्यान केन्द्रित करें इन सबको समेट कर फिर मन्दिर में पूजा को उद्यत होवें ।
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कहि जगजीवन सबद की, जीव न समझी गांस१३ ।
रांम बिमुख तिस रस रंज्या, रकत बध्या अर मास ॥६३॥
(१३. गांस=निरोधशक्ति)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव ने शब्द की शक्ति को नहीं जाना राम विमुख होकर जिस रस में मग्न हुये उससे तो रक्त और मांस की ही वृद्धि होती है ।
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जरैं१४ राजी दुनी सब, आसिक अल्लह१५ रब्बु१६ ।
कहि जगजीवन ऐ वही, आदि अंत मधि अंबु ॥६४॥
(१४. जरैं=धन-सम्पत्ति) (१५. आसिक अल्लह=भगवत्प्रेमी)
(१६. रब्बु=परमेश्वर, परमात्मा)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सम्पत्ति के बढने या दुगने होने से मन बड़ा प्रसन्न होता है और जो भक्त है उन्हें अल्लाह की आशिकी यानि भक्ति में आनंद आता है । ये वे जो आदि से मध्य व अन्त तक एक जैसे जलवत रहते हैं ।
(क्रमशः)

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