शनिवार, 10 जुलाई 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.५३

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.५३)*
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*५३. हैरान प्रश्‍न । वर्ण भिन्न ताल*
*कादिर कुदरत लखी न जाइ,*
*कहाँ तैं उपजै कहाँ समाइ ॥टेक॥*
*कहाँ तैं कीन्ह पवन अरु पानी,*
*धरणि गगन गति जाइ न जानी ॥१॥*
*कहाँ तैं काया प्राण प्रकासा,*
*कहाँ पंच मिल एक निवासा ॥२॥*
*कहाँ तैं एक अनेक दिखावा,*
*कहाँ तैं सकल एक ह्वै आवा ॥३॥*
*दादू कुदरत बहु हैरानां,*
*कहाँ तैं राख रहे रहमाना ॥४॥*
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भा० दी०-हे प्रभो, त्वन्माया दुर्विज्ञेयाऽऽश्चर्यरूपा च। कथं कुतो वा जगदिदं विरचितं कुत्र च प्रलये लीनं भवति ? आकाशादय: पञ्चभूता: परस्परविरुद्धस्वभावाः कुतो वा संप्रसूताः ! त्वदीयां चेष्टां कोऽपि विज्ञातुं नार्हति । कुत: शरीरमिदं विरचय्य प्राणसंनिवेश: कृत: ? कथं चभिन्नविषयाणीन्द्रियाणि शरीरमधितिष्ठन्ति? कथमेकः सन् अनेकधा प्रादुरभवत् ? पुनश्च प्रलयकाले कथमेकत्रीभवति ? स दयालुः परमात्मा सर्वेषां रक्षकः सन्निर्विकारः कथं भवति ? अतस्तव मायाऽति-दुस्तरेति, मन्येऽहम् ।
उक्तमानन्दरामायणे ~
नश्वरं भासते चैतद् विश्वं मायोद्भवं नृप !
यथा शुक्तौ रौप्याभास: काचभूम्यां जलस्य च ॥
यथा रज्जौ सर्पाभास: मृगतोये जलस्पृहा ।
तद्वदात्मनि भासोऽयं कल्प्यते नश्वरोऽबुधैः ॥
अज्ञानदृष्टिभिनित्यं मन्यते न तु पण्डितः ।
आत्मा शुद्धो निळलीक: सच्चिदानन्दलक्षणः ॥
आत्मा नित्यो न स्पृशति परमानन्दविग्रहः ।
देहागारसुतस्त्रीषु मामकेति च या मतिः ॥
उपसंहृत्य बुद्ध्वा संन्यस्य ब्रह्मणि चिदने ।
यद्यत्किञ्चिद् भासतेऽत्र तत्तन्नारायणात्मकम् ॥
पश्य त्वं सर्वभावेन मुच्यसे भवसंकटात् ॥
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हे प्रभो ! आपकी माया को कोई नहीं जान सकता है, क्योंकि वह आश्चर्यमयी है । जैसे यह संसार किसने किस प्रकार से रचा है और अन्त में किस में लीन हो जाता है ? आकाश, वायु, तेज, पृथ्वी, ये पांचों भूत कहां से पैदा हो गये और विरुद्ध स्वभाव वाले यह पांचों मिल कर कैसे कार्य कर रहे हैं? यह कोई भी नहीं जानता । इस शरीर में प्राणों का संचार कैसे किया ? भिन्न-भिन्न विषयों में प्रवृत्त होने वाली ये पांचों इन्द्रियां इस शरीर में कैसे रहती है ? वह परमात्मा एक होता हुआ कैसे अनेक रूपों को धारण करता है और प्रलय में फिर कैसे एक हो गया और वह परमात्मा सब की रक्षा पालन करते हुए भी कैसे निर्विकार रहता है ? अतः इस दुस्तर माया को पार करके कैसे जीवन्मुक्त हो सकता है ?
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आनन्दरामायण में लिखा है कि-
हे राजन् ! माया से उत्पन्न यह समस्त संसार आत्मा में उसी प्रकार झूठा भासित हो रहा है जैसे सीपी में चांदी, बालू रेत में जल, रस्सी में सर्प तथा मृगमरीचिका में सलिल भासित होता है । अज्ञानी लोग इस आभास को भी नित्य तथा अनश्वर मानते हैं । किन्तु विद्वान् तो इसे मिथ्या और नश्वर मानते हैं । उनके मत में आत्मा शुद्ध, नित्य, सच्चिदानन्द है और वह आत्मा किसी में भी आसक्त नहीं होता । जिस प्रकार कमल का पत्ता जल का स्पर्श ही नहीं करता, वैसे ही निर्मल नित्य परम आनन्द स्वरूप आत्मा भी माया से निर्लेप रहता है ।
देह, गेह, पुत्र, स्त्री आदि से ममता हटाकर अथवा संन्यास के द्वारा समस्त भावनाओं को त्यागकर जो यह दृश्यमान संसार है, इसको चिद्घन ब्रह्म से अभिन्न नारायण रूप जान कर तथा उसी ईश्वर को सर्वत्र व्याप्त जान कर आप ही इस संसार संकट से मुक्त हो जायेंगे ।
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*॥ उत्तर की साखी ॥*
*रहै नियारा सब करै, काहू लिप्त न होइ ।*
*आदि अंत भानै घड़ै, ऐसा समर्थ सोइ ॥१॥*
*श्रम नहीं सब कुछ करै, यों कल धरी बनाइ ।*
*कौतिकहारा ह्वै रह्या, सब कुछ होता जाइ ॥२॥*
*दादू शब्दैं बँध्या सब रहै, शब्दैं ही सब जाइ ।*
*शब्दैं ही सब ऊपजै, शब्दैं सबै समाइ ॥३॥*
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भा० दी०-उत्पत्तिस्थितिप्रलयकारको भगवान् हर्षशोकादिरहित: साक्षिरूपेण विराजते। स हि एतादृशः समर्थशाली, येनानायासेनैव स्वसंकल्पमात्रेणेदं जगद् रचितम् । तस्यैव सत्तया सर्वमिदं भासते। तथापि स साक्षितया निर्विकारो दृश्यते । “एकोऽहं बहुस्याम” इत्यादिवचनैस्तस्य सर्वसामर्थ्य सिद्ध्यति।
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उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय करने वाला भगवान् हर्ष शोक से रहित साक्षी रूप से रहता है । यह उसका सर्व सामर्थ्य है कि उसको सृष्टि बनाने में जरा सा भी परिश्रम नहीं होता अपितु उनके संकल्प मात्र से यह सृष्टि बन जाती है । उस की ही सत्ता से सब कुछ हो रहा है, वह तो दृष्टा बन कर सब को देखता रहता है । यह सब उसका सामर्थ्य है ।
(क्रमशः)

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