गुरुवार, 1 जुलाई 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.४६

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.४६)*
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*४६. हित उपदेश । नट ताल*
*हुसियार रहो, मन मारैगा, साँई सतगुरु तारैगा ॥टेक॥*
*माया का सुख भावै, मूरख मन बौरावै रे ॥१॥*
*झूठ साच कर जाना, इन्द्रिय स्वाद भुलाना रे ॥२॥*
*दुख को सुख कर मानै, काल झाल नहीं जानै रे ॥३॥*
*दादू कह समझावै, यहु अवसर बहुरि न पावै रे ॥४॥*
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भा० दी०-श्रीदादूदेवः साधकेभ्यो हितमुपदिशति । हे साधक ! सावधानेन भवतिव्यम् । अन्यथा मनो गृध्रस्त्वां शरीरात्समता सखं विनाश्य विषयामिषगर्ने पातयिष्यति । यदि च कदाचिन्मनसो विश्वासेन विषयेषु तव प्रवृत्तिःस्यात्तर्हि शीघ्रं भगवच्छरणागतिं गत्वा गुरुकृपयाऽऽत्मानं समुद्धर । सैव गुरुकृपा ते समुद्धारिका, नान्यत् किश्चित् । अति दुष्टमिदं मनः चिन्तानिचयचल चञ्चलया वृत्त्या त्या दूरमाकृष्य दिगन्तेषु विषयवनेषु भ्रामयिष्यति । मायिक विषयसुखप्रिय हि मनस्तेष्वेव रमते नितान्त । नतु हरिप्रियं भवति । इन्द्रियाणां विषयरसेषु मुग्ध सदसत्यमपिसत्यमरग्यमपि रम्य दुःखमपि सुखमशिवमपि शिवं दर्शयन् सेक्षणमपि जीवमन्धी करोति । खेदयति च दुर्निवारया तृष्णया कालसर्पिणीव । नच कालाग्नितोऽपि विभेति । तस्मात्त्वां संबोधयाम्यहं यदुर्लभं मानुषं जन्म प्राप्य स्वात्मानं स्वात्मना समुद्धर । नहीदृशं शरीरं पुन: पुन लभ्यते ।
उक्तहि योग वासिष्ठे-वैराग्ये-
चित्तादिमानि सुखदुःखशतानि नूनमभ्यागतान्यगवरादिवकाननानि
तस्मिन् विवेक वशतस्तनुता प्रयाते मन्ये मुने निपुणमेव गलन्ति तानि ॥
सकलगुणजयाशा यत्र वद्धा महद्भिस्तमरिमिह विजेतुं चित्तमभ्युत्थितोऽहम् ।
विगतरति तयाऽन्त र्नाभिनन्दामि लक्षमी जडमलीनविलासा मेघवलेखा मिवेन्दुः ॥
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हे साधक ! इस मन से सावधान रहना अन्यथा यह मन रूपी पक्षी ब्रह्म-सुख को नष्ट करके विषय रूपी मांस भोग के सुख में ले जाकर तुझको पटक देगा । यदि कदाचित् मन का विश्वास करने के कारण तेरी विषयों में प्रवृत्ति होती दीखे तो भगवान् की शरणागति ग्रहण करके गुरु की कृपा से अपना उद्धार शीघ्र कर लेना । वह गुरु-कृपा या भगवत्कृपा ही तेरा उद्धार करेगी ।
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यह मन तो बड़ा ही दुष्ट है । तुझे चिन्ता-समूह से चंचल करके अपनी चंचल वृत्ति के द्वारा दूर ले जाकर दशों दिशाओं में विषय-वन में ले जाकर भटका देगा । इस मन को मायिक विषयों का सुख ही प्रिय है । अतः यह संसार के सुखों में ही रमता रहता है । इसको हरि प्रिय नहीं लगते ।
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यह मन इन्द्रियों के विषयों से मोहित होकर असत्य को भी सत्य, असुन्दर को भी सुन्दर, दुःख को भी सुख तथा अशिव के शिव मान कर नेत्र वालों को भी अन्धा बना देता है और जिस तृष्णा का कभी नाश नहीं हो सकता, उस तृष्णा से काली सर्पिणी की तरह दुःख देता रहता है । इसलिये मैं तुझे सावधान करता हूं कि ऐसा दुर्लभ मनुष्य शरीर प्राप्त करके भी अपने आपका अपने से ही तुम उद्धार कर लो फिर ऐसा शरीर न मिलेगा ।
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योगवासिष्ठ में लिखा है कि –
संपूर्ण पदार्थों का कारण यह मन ही है । जब तक मन है तभी तक तीनों कालों की सत्ता है । उसके क्षीण होते ही जगत् क्षीण हो जाता है । अतः चित्त रूपी रोग की चिकित्सा यत्नपूर्वक करनी चाहिये । जैसे महान् पर्वत से अनेक वृक्षों की तथा कानन की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार इस मन से ही सैकड़ों प्रकार के सुख-दुःख पैदा होते हैं । आत्मा के विवेक से यह चित्त दुर्बल हो जाता है, तब ये सुख दुःख पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं, ऐसा मेरा विश्वास है ।
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महान् मुमुक्षु पुरुष जिसके जीते जाने पर शम, दम, क्षमा, समता, शान्ति, संतोष, सरलता आदि गुणों के प्राप्ति की संभावना करते हैं । उस चित्त रूपी शत्रु को जीतने के लिये मैं सब प्रकार से उद्यत हुआ हूं । जैसे चन्द्रमा मेघमाला का अभिनन्दन नहीं करता उसी प्रकार मैं तीव्र वैराग्य से युक्त होने के कारण मलिन विलास वाली लक्ष्मी का भी अभिनन्दन नहीं करता ।
(क्रमशः)

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