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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१६. सांच कौ अंग ~ ७७/८०*
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रांम कहावै रांम कहि, रांमहि राखै चीति ।
कहि जगजीवन रांमरस, सो जन समझै नीति ॥७७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो जन राम कहै औरों से भी संबोधन देकर कहलावे और सदा चित में यह ही रहे वे ही जन इस रामरस के आनंद को जान सकते हैं ।
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हांसी हरकत सुलभ है, दुरलभ रोज सरोद ।
कहि जगजीवन बिराजै, पूत पिता की गोद ॥७८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं स्तर बगैर हंसी मजाक तो आसानी से मिल सकता है किंतु पक्के राग इत्यादि थोड़े दुष्कर हैं । जो उन्हें साध लेता है वो परमात्मा की गोद या संरक्षण में वैसे ही विराजता है जैसै पिता की गोद में पुत्र अधिकार पूर्वक बैठता है ।
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जे रोवै तो रांम सौं, हंसै तो हरि सौं हेत ।
कहि जगजीवन मांहि मिलि, सुमिरन लागि सचेत ॥७९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे जीव रोकर पुकारे तो राम जी को पुकार और प्रसन्न हो तो प्रभु अनुरागी हो । परमात्मा मन के अन्दर हो और सावचेत हो सुमरिन करें ।
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हरष हवा मंहि राखि चित, हंसि दे भावै रोइ ।
कहि जगजीवन रांम भगति बिन, बात न पूछै कोइ ॥८०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे जीव प्रसन्न हो या निराश हो कर प्रभु को चित में रख । संत कहते हैं कि प्रभु की भक्ति के बिना कोइ भी कुछ नहीं पूछता है ।
(क्रमशः)
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