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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१६. सांच कौ अंग ~ ८१/८४*
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घड़ी महूरत नांम ले, हरि हरि रांम पुकारि ।
कहि जगजीवन रोइ दे, हंसि मति चालै हारि ॥८१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु का नाम चाहे थोड़ा ही ले निरंतर हरि हरि कर उस राम को पुकारते रहे उसमें जीवन हार कर हंस मत रो दे ।
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कहि जगजीवन रांमजी, रोवै हंसै सरीर ।
हरि भजि हरि मंहि एक रस, रांम कहै जन थीर२ ॥८२॥
{२. थीर=स्थिर(=स्थितप्रज्ञ)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि रोना हंसना तो स्थूल शरीर की क्रियायें हैं सूक्ष्म शरीर से प्रभु का भजन कर जो प्रभुमय हो जाते हैं वे ही धैर्य धारण करने वाले स्थित प्रज्ञ कहलाते हैं ।
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उतपति बाजी हरि सकति, बरति रही सब ठांम ।
कहि जगजीवन सकति मंहि, निरसकति निरगुण नांम ॥८३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव में उत्पत्ति की शक्ति प्रभु की है जो सभी स्थानों पर प्रकट है इस शक्ति में जो प्रदर्शन से परे है वह निर्गुण परमात्मा का स्मरण है ।
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साज३ सकल पैदा किया, सो हरि साहिब रांम ।
कहि जगजीवन करै करावै, अकल पुरुष सब ठांम ॥८४॥
(३. साज=जीवनोपयोगी या पूजोपयोगी साधन)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिसने यह सब वैभव उत्पन्न किया है वे प्रभु सर्वत्र हैं वे ही कर्ता हैं जो निरंतर हैं सब स्थानों पर विद्यमान हैं ।
(क्रमशः)
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