गुरुवार, 25 नवंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३२

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३२)*
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*१३२. विनती । त्रिताल*
*ये मन माधो बरजि बरजि ।*
*अति गति विषिया सौं रत,*
*उठत जु गरजि गरजि ॥टेक॥*
*विषय विलास अधिक अति आतुर,*
*विलसत शंक न मानैं ।*
*खाइ हलाहल मगन माया में,*
*विष अमृत कर जानैं ॥१॥*
*पंचन के संग बहत चहूँ दिशि,*
*उलट न कबहूँ आवै ।*
*जहँ जहँ काल ये जाइ तहँ तहँ,*
*मृग जल ज्यों मन धावै ॥२॥*
*साध कहैं गुरु ज्ञान न मानै,*
*भाव भजन न तुम्हारा ।*
*दादू के तुम सजन सहाई,*
*कछू न बसाइ हमारा ॥३॥*
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भा० दी०- विषयव्याप्तमिदं मे मन इतस्तत: समनुधावति । विषयप्रियमिदं मन: सिंहवद्गर्जनां कृत्वा तदर्थमुल्लसति । विषयविषाकृष्टमिदं मनस्तत्प्राप्त्यये सततमुत्कण्ठते । विषयविषं पीयूषवन्मत्वा पिबति पीत्वा च तद्विषं मद्यप इव मायिकपदार्थेषु माद्यति । पञ्चभिर्ज्ञानेन्द्रियैर्दशदिक्षु विधावति । यथा मृगो मृगरीचिकाजले जलमन्वेष्टुं मुग्धः सन् धावति तथैव मे मनोऽपीदं चञ्चलया वृत्त्या मृत्युमप्यविगणय्य संसारगर्ने पतति । उन्मत्त त्वाद्धितमप्यहितं मन्यते । न च साधूपदेश माद्रियते । गुरूपदेशमपि तिरस्करोति । नच भगवद्भजनं विदधाति । दुष्टमिदं मनस्त्वमेव शिक्षयितुं शक्नोषि । अहन्तु तज्जेतुं न शक्नोमि । त्वमेव मे सहायकोऽसि । अतो दयां विधाय भवानेव मे मनोऽनुशास्तु ।
उक्तहि वासिष्ठे-
न मनोनिवृत्तिं याति मृगो यूथादिवच्युतः ।
मनो मननविक्षुब्धं दिशोदशविधावति ॥
मन्दराहननोद्भूतं क्षीरार्णवपयो यथा ।
भोगदुर्वाङ्कुराकांक्षी श्वभ्रपातमचिन्तयत् ॥
मनोहरिणको ब्रह्मन् दूरं विपरिधावति ।
चेतञ्चचलया वृत्त्या चिन्तानिचयचञ्चरम्॥
धृति बनाति नैकत्र पञ्जरे केसरी यथा ।
चेतः पतति कार्येषु विहग: स्वामिषेष्विव ॥
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हे माधव ! इस मेरे विषय लम्पट मन को आप ही समझाओ और रोको । इस मन को विषय ही प्यारे लगते हैं । यह सिंह की तरह गर्जना करता हुआ उन विषयों की प्राप्ति के लिये उत्कण्ठित(प्रसन्न) होता रहता है । इस मन को विषय विलास ही अच्छा लगता है । उन उन विषयों में जाते हुए इसे जरा भी संकोच नहीं होता है । 
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विषय-विष को अमृत की तरह पीता है । उन विषयों को पीकर पदार्थों की प्राप्ति के लिये पागल हो जाता है । पांचों ज्ञानेन्द्रियों के साथ दशों दिशाओं में दौड़ता रहता है । उनको छोड़ कर कभी भी आपकी शरण में नहीं आता । जैसे मृग मरीचिका के पानी को सत्य मान कर वन में दौड़ता है, ऐसे ही यह मन भी चंचल वृत्ति के द्वारा मृत्यु की भी परवाह न करके संसार रूपी गर्त में गिर जाता है । पागल होने से हित को अहित, सत्य को असत्य मानता है ।
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साधुओं के उपदेश को भी नहीं सुनता । गुरु के उपदेश को भी नहीं मानंता । श्रद्धा-भाव से कभी भगवान् का भजन भी नहीं करता । यह मन बड़ा ही दुष्ट है, इस को आप ही समझाइये । मैं स्वयं भी इस को जीतने में समर्थ नहीं हूं । आप मेरे सदा सहायक हैं, अतः कृपा करके इस मन को शिक्षा दो । 
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वासिष्ठ में – हे मुने ! जैसे अपने झुंड से बिछुड़ कर जाल में जकड़े हुए मृग को कभी सुख नहीं मिलता, उसी प्रकार सत्संग आदि साधनों से रहित मन भी दुर्वासनाओं के जाल में जकड़ा रहता है और उसको कभी सुख, संतोष प्राप्त नहीं होते । विषयों के चिन्तन से क्षुभित यह मन मन्दराचल के आघात से उछालती हुई क्षीर-सागर की तरंगों के समान संसार में दौड़ता रहता है, कभी भी शान्त नहीं होता । 
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हे ब्रह्मन् ! जैसे मृग गड्ढ़े में गिरने की चिन्ता न करके हरी-हरी दूब को चरने की इच्छा से प्रेरित हो बहुत दूर दौड़ लगाता है । उसी प्रकार यह मन बि नरक रूपी गर्त की परवाह न करके भोग-लालसा की आशा में बड़ी दूर तक चक्कर लगाता है । 
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जैसे पिंजड़े में बन्द किया हुआ सिंह चिन्ता के कारण एक जगह स्थिर नहीं रहता, उसी प्रकार नाना चिन्ताओं से अत्यन्त चपल हुआ मन अपनी चंचल वृत्ति के कारण कहीं भी स्थिर नहीं रहता और मांस-भक्षी गीध मांस को खाने के लिये उस पर टूट पड़ता है, ऐसे ही यह मन नाना कार्यों में दौड़ता रहता है । अतः यह मन दुर्जेय है । आप ही दया करके इस मन को समझाओ ।
(क्रमशः)

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