गुरुवार, 25 नवंबर 2021

*मेवासी का अंग १७०(१/३)*

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*दादू विषै विकार सौं, जब लग मन राता ।*
*तब लग चित्त न आवई, त्रिभुवनपति दाता ॥*
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श्री रज्जबवाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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मेवासी का अंग १७०
इस अंग में मन रूप गढ़पति के विषय-राग का परिचय दे रहे हैं ~
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मेवासा१ भागै नहीं, सेवा भांति सहंस२ ।
जन रज्जब जिव जब लगै, सौंपे नहिं सर्वस३ ॥१॥
प्रबल१ डाकू की चाहे सहस्त्र२ प्रकार की सेवा करे किंतु जब तक मनुष्य उसे अपना सर्वस्व३ नहीं सौंपता तब तक वह नहीं भागता । वैसे ही हजारों प्रकार की सेवा पूजा करें किंतु प्रबल मन तब तक विषयाशक्ति रूप घर को नहीं त्यागता जब तक जीव अपना सर्वस्व प्रभु को समर्पण नहीं करता ।
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दुर्मति दुर्ग१ न ऊतरै, तजै न बैग्रट२ वन्न३ ।
मेवासा४ मेटै नहीं, मरण कबूलै५ मन्न६ ॥२॥
जैसे प्रबल गढपति डाकू किले१ से नहीं उतरते और बाहर हो तो अपनी रक्षा के लिये पर्वतादि वन३ का त्याग नहीं करते, मरणा स्वीकार५ कर लेते हैं किन्तु अपनी प्रबलता४ नहीं मिटाते । वैसे ही मन६ दुर्बुद्धि रूप किले से नीचे नहीं उतरता अर्थात दुर्बुद्धि का त्याग नहीं करता और विग्रह२ रूप वन को नहीं छोड़ता । मरणा स्वीकार५ कर लेता है । किंतु अपनी चंचलता रूप प्रबलता नहीं त्यागता ।
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मन मेवासा१ देही दास, सेवक स्वामी गत२ विश्वास ।
बाहर रूपा३ भीतर लोह, नर नाणें४ बंधै नहिं मोह ॥३॥
मन प्रबल गढपति१ है, इन्द्रियादि शरीर उसका दास है । मन रूप स्वामी और इन्द्रियां शरीर रूप दास दोनों ही प्रभु के विश्वास को खोकर२ विषय रूप धन लूटते फिरते हैं । जैसे बाहर तो चाँदी३ हो और भीतर लोहा हो, ऐसा रुपया४ और उक्त प्रकार के मन इन्द्रियादि के विषय समान है । इनके मोह में नर को न बंधना चाहिये ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित मेवासा का अंग १७० समाप्तः ॥सा. ५१३१॥
(क्रमशः)

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