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*दादू निबहै त्यौं चलै, धीरै धीरज मांहि ।*
*परसेगा पीव एक दिन, दादू थाके नांहि ॥*
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टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*निक्वारिज नपुंसक का अंग १९१*
इस अंग में नपुंसक के सामान मन का निकम्मा१पन बता रहे हैं ~
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ब्रह्म व्योम१ मांही रहै, तत्त्व वेता तन तार२ ।
रज्जब गिर्यों३ न गोय४ परि, कोइ न पावन हार ॥१॥
आकाश१ में तारा२ रहता है और गिरने३ पर पृथ्वी४ पर भी नहीं आता, उसे प्राप्त करने वाला कोई नहीं है । वह पुन: प्रकाश देने योग्य नहीं रहता । वैसे ही तत्त्व वेत्ता का सूक्ष्म शरीर ब्रह्म में अर्थात ब्रह्म परायण रहता है और गिरने पर पृथ्वी पर नहीं रहता । जैसे आत्मा ब्रह्म में लय होता है, वैसे ही उसका विघटन होकर, जो जिसका कार्य होता है वह अपने कारण में मिल जाता है । अत: उसको प्राप्त करने वाला कोई नहीं है । वह पुन: संसार के काम का नहीं रहता ।
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रहै न कमला१ केलि२ मधि, शब्द सु मिरचों मांहिं ।
मन कपूर के दोय घर, विछुट्यों लहिये नांहिं ॥२॥
कपूर के केला२ और काली मिरच ये दो ही घर हैं, इनमें ही कपूर रहता है, इनसे अलग होने पर न तो मिलता है और न काम आता है । वैसे ही मन के माया१ और शब्द के दो ही घर हैं, इनमें ही मन रहता है । इनमें अलग होने पर नहीं मिलता है और न काम आता है ।
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उतरै उडग अकाश तैं, करतैं जाय कपूर ।
त्यों मन टूटा द्वै दशा, लहिये निकट न दूर ॥३॥
जैसे आकाश से उतरा हुआ तारा और हाथ से उड़ा हुआ कपूर, पास या दूर कहीं भी नहीं मिलता । वैसे ही माया और शब्द इन दोनों स्थितियों से गया हुआ मन समीप या दूर कहीं भी नहीं मिलता ।
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अमलबेत सु आतमा, सुई सुरति१ तहँ जाँहिं ।
जन रज्जब सो यूं गल ही, शोधे लहिये नाँहिं ॥४॥
जैसे अमलबेत में सूई रखने से वह गल जाती है, खोजने पर भी नहीं मिलती, वैसे ही आत्मा में वृत्ति लग जाने से आत्मा रूप ही हो जाती है खोजने पर भी अलग नहीं मिलती ।
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आतम टूटै राम सौं, जैसे उडग अकाश ।
तो तिन की आयुस कहा, केतक बेर उजास ॥५॥
जैसे आकाश से तारा टूटता है तब उसकी आयु क्या रहती है ? कितनीक देर उसका प्रकाश रहता है ? वह थोड़ी ही देर में अदृश्य हो जाता है, वैसे ही राम से जीवात्मा टूटता अर्थात विमुख होता है तब उसका क्या अस्तित्व रहता है ? अर्थात कुछ भी नहीं रहता ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित निक्वारिज नपुंसक का अंग १९१ समाप्तः ॥सा. ५३१७॥
(क्रमशः)

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