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*काया नगर निधान है, माँही कौतिक होइ ।*
*दादू सद्गुरु संग ले, भूल पड़े जनि कोइ ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद. ३५८)
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टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*खालसे का अंग १९२*
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पाहुणे की न करी पहुंनाई, घर के भक्ति भूल गये भाई ।
तब मेहमान करी मेहमानी, उलटी कला न जाय बखानी ॥१८॥
ज्ञान रूप पाहुना आया तब मन इन्द्रियों ने उसकी पहुनाई नहीं की । विषयों मे ही तल्लीन रहे । हे भाई ? करते भी कैसे, शरीर रूप पुर के हृदय घर में रहने वाले मन बुद्धि चित्तादि सभी भगवान की भक्ति को भूल गये हैं फिर भक्ति बिना ज्ञान का स्वागत कैसे होता किंतु ज्ञान रूप मेहमान ने ही उक्त मनादि के विकारों की निवृत्ति और सदगुण की प्राप्ति द्वारा मेहमानी की । इस ज्ञान रूप उलटी कला अर्थात ब्रह्म की और उलटने वाली शक्ति की महिमा इतनी है कि - मुख से कही भी नहीं जा सकती ।
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अठारह भार छ: ॠतु लिये, उदय अस्त व्यवहार ।
उन्हालू स्यालू दो दिपैं, ता में फेर न सार ॥१९॥
अठारह भार वनस्पति के लिये छ: ॠतु विभाग को धारण करके उदय अस्त का व्यवहार करते हुये ग्रीष्म और शीतकाल में सूर्य चन्द्र दोनों ही चमकते हैं । अपने उस व्यवहार में परिवर्तन को अवकाश नहीं देते । यह उनमें सार रूप खास बात है ।
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काया कुंभ जल सौं भरे, ज्ञान तेल भरपूरि१ ।
मारुत२ बाती शब्द उजाला, अचेत३ तिमिर४ ह्वै दूरि ॥२०॥
कुंभ में जल भरा हो, उसे निकाल कर उसमें तेल परिपूर्ण१ रूप से भर के बत्ती लगाकर जला दे तब घर का अंधेरा४ दूर होकर प्रकाश हो जाता है । वैसे ही शरीर विषयासक्ति से भरा है, उसे हटा कर उसमें ज्ञान भरे और प्राण२-संयम करे तब हृदय से ज्ञान मय शब्द प्रकट होकर अज्ञान३ दूर करता है ।
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अग्नि जीवतों जीवते, अग्नि मुवों मरि जाय ।
दोन्यों दिपहि१ दुणिद२ शिर, नर देखो निरताय३ ॥२१॥
पेट की अग्नि और शरीर की गर्मी रूप अग्नि जीवित है तब तक शरीर जीवित रहते हैं । पेट की अग्नि नष्ट हो जाय और शरीर में शीत आ जाय तब शरीर नष्ट हो जाते हैं । वैसे ही कामाग्नि और चिन्ताग्नि दोनों जीवित हैं तब तक ही सांसारिक जीवन है । दोनों के नष्ट होने पर पर तो जीवित मृतक(जीवन्मुक्त) हो जाते हैं और उक्त कामाग्नि चिन्ताग्नि पर ज्ञान रूप सूर्य२ प्रकाशित१ हो जाता है । हे नर ! विचार३ करके तुम भी इस स्थिति को देख सकते हो ।
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देखी समै दुकाल१ में, साहिब की द्वै दीठि२ ।
रज्जब सन्मुख कौन सौं, कहो काहि दे पीठि ॥२२॥
ईश्वर की दया दृष्टि२ और क्रूर दृष्टि सुभिक्ष१ और दुर्भिक्ष१ में देखी जाती है । सुकाल में ईश्वर में किसको पीठ देते हैं ? अर्थात सभी के लिये अन्नादि उत्पन्न करते हैं और दुष्काल में किसके सन्मुख होते हैं ? अर्थात किसका अन्न उत्पन्न कर देते हैं ? वे तो सबसे सम ही हैं । उनकी दुष्काल में सब पर क्रूर दृष्टि और सुकाल में सब पर दया दृष्टि ही भासती है उन पर किसी का अधिकार नहीं है । अत: उनके व्यवहार में परिवर्तन नहीं होता ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित खालसे का अंग १९२ समाप्तः ॥सा. ५३३९॥
(क्रमशः)
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