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*दादू दूजा क्यों कहै, सिर पर साहिब एक ।*
*सो हम कौं क्यों बीसरै, जे जुग जाहिं अनेक ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ समर्थता का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*ऊठ गये पिछवार लयो पद,*
*झांझ बजावत राम रिझावै ।*
*चोट दिखावत मोहि सुहावत,*
*ठौरहु भावत नित्य रहावै ॥*
*आप सुनी हरि हैं करुणामय,*
*देवल होय दयाल फिरावै ।*
*मंदिर मांहिं हुते सु जिते नर,*
*आब गई जन पाँय परावै ॥२२४॥*
वे वहां से मंदिर के पीछे जाकर बैठ गये और झांझ बजाते हुए लय पूर्वक पद गाकर रामजी को प्रसन्न करने लगे ।
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हे प्रभो ! आपने मेरे चोटें लगवाई और धक्के दिलवाये, सो तो मुझे अच्छे ही लगे । कारण – मेरा दोष था, दोष का दंड मिलना ही चाहिये था, किन्तु मेरी प्रार्थना है कि – मुझे यह आपका मंदिर रूप स्थान जहां मैं नित्य पद गाया करता हूँ, वह बहुत प्रिय लगता है । सो यहां नित्य ही पद गाता रहूँ । कारण – आपको छोड़कर मुझे और कहां ठौर ठिकाना है ?
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हरि तो करुणामय हैं ही । आपने नामदेव की प्रार्थना सुन ली और दयालु होकर मंदिर को फिराकर द्वार नामदेव की ओर करके नामदेव जी को दर्शन दिया । यह अति विचित्र चरित्र देख कर मंदिर में जितने श्रोत्रिय, वेदपाठी, पण्डा पुजारी थे, जिनने नामदेव को चोटें तथा धक्का लगाकर बाहर निकाला था, उनके मुखों की शोभा वा उनकी प्रतिष्ठा नामदेव जी के आगे कुछ भी नहीं रही ।
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सबके सब लज्जित होकर भक्त नामदेव के चरणों में पड़कर अपराध की क्षमा याचना करते हुए भक्त नामदेवजी की जय ध्वनि करने लगे । कुछ लोग कहते हैं – शिवरात्रि के अवसर पर नामदेव औढिया नामक स्थान में नागनाथ महादेव का दर्शन करने गये थे ।
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वहां दर्शन करके ये कीर्तन करने लगे तब शिवजी का अभिषेक करने वाले ब्राह्मणों ने नामदेव की कीर्तन-भक्ति का तिरस्कार करके उनको वहां से हटा दिया था । वे मंदिर के पीछे जाकर कीर्तन करने लगे थे । तब शिवजी अभिषेक करने वाले ब्राह्मणों की ओर पीठ फेरकर नामदेव के सन्मुख हो गये थे । इस घटना का चिन्ह बताते हैं कि वहां नन्दीदेव शिव जी के सामने नहीं हैं पीछे हैं ।
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कुछ लोग आलावती स्थान के मंदिर फिरने की बात भी कहते हैं । फिर नामदेव जी की अनन्य भक्ति और भक्तमालकारों के वर्णन से तो पण्ढरपुर का मन्दिर फिरना ही यक्ति युक्त ज्ञात होता है और वहां के लिये भी यह कहा जाता है कि – मन्दिर का द्वार अब तक दक्षिण मुख है । मन्दिर फिरने की घटना सत्य है चाहे कोई भी फिरा हो, तीनों ही फिरे हों तो क्या बड़ी बात है ? अथवा कोई और ही फिरा हो कारण – मूल में किसी भी मन्दिर का नाम नहीं है ।
(क्रमशः)

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