शनिवार, 14 मई 2022

कहाँ कहाँ ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं ?

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*दादू अन्तर्गत ल्यौ लाइ रहु, सदा सुरति सौं गाइ ।*
*यहु मन नाचै मगन ह्वै, भावै ताल बजाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ लै का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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“एक बात और उस दिन हुई थी । लक्ष्मण ने पूछा था, 'कहाँ कहाँ ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं ?’ राम ने बहुत सी बातें कहकर फिर कहा, 'भाई, जिस मनुष्य में यथार्थ भक्ति देखोगे, ऐसी भक्ति कि वह हँसता है, रोता है, नाचता है, गाता है, मारे प्रेम के मतवाला हो रहा है, वहाँ समझना, मै अवश्य हूँ ।’”
श्रीरामकृष्ण – आहा – आहा !
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श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप रहे ।
मणि - ईशान से तो आपने केवल निवृत्ति की बातें कही थीं । उसी दिन से बहुतों की अक्ल दुरुस्त हो गयी । अब कर्तव्यकर्मों के घटाने की ओर हम लोगों का रुख है । आपने कहा था एक दूसरे की बला अपने सिर क्यों लादी जाय ? श्रीरामकृष्ण यह बात सुनकर बड़े जोर से हँसे ।
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मणि - (बड़े विनय-भाव से) - अच्छा, कर्तव्य-कर्म, यह जंजाल घटाना तो अच्छा है न ?
श्रीरामकृष्ण – हाँ, परन्तु सामने कोई पड़ गया, वह और बात है । साधु या गरीब आदमी अगर सामने आया, तो उनकी सेवा करनी चाहिए ।
मणि - और उस दिन ईशान मुखर्जी से खुशामद की बात भी आपने खूब कही । मुर्दे पर जैसे गीध टूटते हैं । यही बात आपने पण्डित पद्मलोचन से भी कही थी । श्रीरामकृष्ण - नहीं, उलो के वामनदास से कही थी ।
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श्रीरामकृष्ण को नींद आ रही है । उन्होंने मणि से कहा - "तुम अब सोओ जाकर । गोपाल कहाँ गया ? तुम दरवाजा बन्द कर लो, पर जंजीर न चढ़ाना ।”
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दूसरे दिन सोमवार था । श्रीरामकृष्ण बिस्तरे से प्रातः काल उठकर देवताओं के नाम ले रहे हैं । रह-रहकर गंगा-दर्शन कर रहे हैं । उधर काली और श्रीराधाकान्त के मन्दिर में मंगलारती हो रही है । मणि श्रीरामकृष्ण के कमरे में जमीन पर लेटे हुए थे । वे भी बिस्तर से उठकर सब देख और सुन रहे हैं ।
प्रातःकृत्य समाप्त करके वे श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे ।
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श्रीरामकृष्ण स्नान करके काली-मन्दिर जा रहे हैं । उन्होंने मणि से कमरे में ताला बन्द कर लेने के लिए कहा ।
काली-मन्दिर में जाकर श्रीरामकृष्ण आसन पर बैठे और फूल लेकर कभी अपने मस्तक पर और कभी श्रीकाली के पादपद्यों पर चढ़ा रहे हैं । फिर चामर लेकर व्यजन करने लगे ।
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श्रीरामकृष्ण अपने कमरे की ओर लौटे । मणि से ताला खोलने के लिए कहा । कमरे में प्रवेश कर छोटी खाट पर बैठे । इस समय भाव में मग्न होकर नाम ले रहे हैं । मणि जमीन पर अकेले बैठे हुए हैं ।
श्रीरामकृष्ण गाने लगे । भाव में मस्त हुए आप मणि को गीतों से क्या यह शिक्षा दे रहे हैं कि “काली ही ब्रह्म है; काली निर्गुण हैं और सगुण भी हैं, अरूपा हैं और अनन्तरूपिणी भी है ।"
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गाना (भावार्थ) - "ऐ तारिणी, मेरा त्राण कर । तू जल्दी कर, इधर यम-त्रास से मेरा जी निकल रहा है । तू जगदम्बा है, तू लोकों का पालन करती है, मनुष्यों को मुग्ध भी तू ही करती है, तू संसार की जननी है, यशोदा के गर्भ से जन्म लेकर कृष्ण की लीला में तू ही ने सहायता दी थी । वृन्दावन में तू विनोदिनी राधा थी, व्रजवल्लभ कृष्ण के साथ तूने विहार किया था । रासरंगिनी और रसमयी होकर रास में तूने अपनी लीला का प्रकाशन किया था । .... तू शिवानी है, सनातनी है, ईशानी है, सदानन्दमयी है, सगुणा भी है, निर्गुणा भी है, सदा ही तू शिव की प्यारी है, तेरी महिमा कहने के योग्य ऐसा कौन है ?''
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कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण ने पूछा 'अच्छा, इस समय मेरी कैसी अवस्था तुम देख रहे हो ?"
मणि - (सहास्य) - यह आपकी सहजावस्था है ।
श्रीरामकृष्ण मन ही मन गाने का एक चरण अलाप रहे हैं ।
(क्रमशः)

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