सोमवार, 16 मई 2022

*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ १०५/१०६*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ १०५/१०८*
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कहि जगजीवन रांमजी, उपज्या नहीं अगाध ।
अबरण बरण अकास हरि, अह हरि सुमिरै साध ॥१०५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वे असीमित प्रभु जन्म से परे हैं । वे वर्ण व अवर्ण से भी भी विस्तृत आकाश सदृश हैं ऐसे परमात्मा को संत भजते हैं ।
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उपज्या नहिं अरु सकल है, वो अबिगत वो रांम ।
कहि जगजीवन ध्यांन हरि, निरख नूर सब ठांम ॥१०६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो जन्मा नहीं पर सर्वत्र है वो अविगत न जाने जा सकने वाले प्रभु राम हैं ध्यान पूर्वक देखने पर सर्वत्र उनका ही तेज दिखता है ।
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उपज्या नहिं अरु सकल है, जे उपज्या सो अंस ।
कहि जगजीवन उभै भै, भई क्रिषन गहि कंस ॥१०७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वे प्रभु जन्मे नहीं पर सम्पूर्ण व सर्वत्र है । और जो जन्मा है वह जीव उनका अंश है । संत कहते हैं हि इनकी स्थिति कृष्ण व कंस सी है । दोनों में वे स्वयं हैं ।
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उपज्या नहिं अरु सकल है, अकल निरंजन एक ।
कहि जगजीवन सिध साधक मुनि, खोजत थके अनेक ॥१०८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जन्म नहीं हुआ पर सम्पूर्ण है । वे अकल निरंजन प्रभु एक हैं । जिन्हें सिद्ध साधक, और मुनि जन खोजते खोजते थक जाते हैं ।
(क्रमशः)

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