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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२०७)*
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*२०७. वस्तु निर्देश । त्रिताल*
*तहँ आपै आप निरंजना, तहँ निसवासर नहि संजमा ॥टेक॥*
*तहँ धरती अम्बर नाहीं, तहँ धूप न दीसै छांहीं ।*
*तहँ पवन न चालै पानी, तहँ आपै एक बिनानी ॥१॥*
*तहँ चंद न ऊगै सूरा, मुख काल न बाजै तूरा ।*
*तहँ सुख दुख का गम नाहीं, ओ तो अगम अगोचर माहीं ॥२॥*
*तहँ काल काया नहिं लागै, तहँ को सोवै को जागै ।*
*तहँ पाप पुण्य नहिं कोई, तहँ अलख निरंजन सोई ॥३॥*
*तहँ सहज रहै सो स्वामी, सब घट अंतरजामी ।*
*सकल निरन्तर वासा, रट दादू संगम पासा ॥४॥*
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भा०दी -निर्विकल्पसमाधिदशायां निर्मायिकं ब्रह्मैव तत्र भासते । यदा समाधौ ब्रह्मतत्त्वस्य साक्षात्कारो भवति तदा तत्र न रात्रिन च दिनं भवति ।
उक्तं हि श्वेताश्वरोपनिषदि-
यदा तमस्तन्न दिवा न रात्रिर्न सन्न चासच्छिव: एव केवल: । इति । न च पृथिवव्यादिपञ्चभूतानां विकारजातं तत्र संभवति । तेषां पञ्चभूतानां वशीकृतत्वात् ।
उक्तं हि तत्र-
पृथ्यप्तोजोऽनिलखे समुत्थिते पञ्चात्मकेयोगगुणे प्रवृत्ते: न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमभयं शरीरम् । मूलोक्तधूप छायाशब्देन शीतोष्णादिद्वन्द्वं गृह्यते । तथा च योगिनं शीतोष्णादिद्वन्द्वं न बाधते ।
उक्तं हि हठयोगप्रदीपिकायाम्-
न विजानाति शीतोष्णं न दुःखं न सुखं तथा न मानं नापमानं च योगीयुक्त: समाधिना । समाधौ वातो न वाति । तस्य निरुद्धत्वात् । मायामेधोऽपिजलं (विषयजलम्) न मुञ्चति । योगी मायाधीनो न भवतीत्यर्थः । न च चन्द्रेण सूर्येण वा तस्य योगिन: प्रकाशो भवति । ब्रह्मरूपत्वात् । तस्य भासासर्व मिदं विभाति इति श्रुतेः । न तद् भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः इतिस्मृते: कालोऽपि तं न बाधते ।
उक्तं हठयोग दीपिकायाम् -
खाद्यते च कालेन न बाध्यते न कर्मणा ।
साध्यते न स: केनाऽपि योगीयुक्त: समाधिना ॥
न च सुखं दुःखं वा व्याप्नोति । यत इन्द्रियातीतो ब्रह्मरूपत्वात् न च तस्य कायं कालो गृह्णाति । जाग्रतस्वप्रसुषुप्तिमूर्छामरणलक्षणाया पञ्चव्युत्थानावस्थातयारहित: स साधको भवति ।
उक्तं हि हठ योगदीपिकायाम्-
सर्वावस्थाविनिर्मुक्त: सर्वचिन्ताविवर्जितः ।
मृतवत्तिष्ठते योगी स मुक्तो नात्र संशयः ॥
न च स्वप्न सुषुप्तिर्वा तत्र भवति ।
तत्रैवोक्तम्- स्वस्थो जाग्रदवस्थायां सुप्तवद् योऽवतिष्ठते ।
निःश्वासोच्छासहीनश्च निश्चितं मुक्त एव सः ।
न च तस्य पापपुण्ययोः श्लेषः ।
उक्तं हि श्रुतौ-
नास्ति तस्य कृते न कर्मणा नास्त्यकृते न कर्मणा । कृताकृते न तपत: । ब्रह्मविद्याप्रक्रियायां संभाव्यमानसम्बन्धस्यागामिनोऽनभिसंबन्धो विदुषो व्यपदिशति श्रुतिः ।
यथा पुष्करपलाश आपो न श्लिष्यन्ति एवमेवं विदिपापकर्म न संश्लिष्यति । अत्र पापशब्देन पुण्यस्यापि ग्रहणम् । नैनं से तु महोरात्रे तरत: । ब्रह्मरूपत्वात् । तत्र समाधौ केवलं ब्रह्मैव शिष्यते तस्यैव ध्यानमहं करोमि ।
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निर्विकल्पसमाधि देश में मायारहित विशुद्ध ब्रह्म ही रहता है । वहां पर संयम आदि साधनों की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि साधन संपन्न होकर ही ब्रह्म भाव को प्राप्त होता है । उस समाधि में दिन और रात नहीं होते
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श्वेताश्वतर में लिखा है कि –
जब अज्ञानमय अन्धकार का सर्वथा अभाव हो जाता है उस समय में अनुभव में आने वाला तत्व, न दिन है न रात है और न सत् है और न असत् एक मात्र केवल कल्याणमय शिव ही है । योगी पृथिव्यादि पञ्चभूतों को जीत लेता है अतः तज्जन्य कोई भी विकार योगी में नहीं आ सकते हैं ।
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‘पातन्जलयोग प्रदीप’ में लिखा है कि –
जब पृथिवी जल तेज वायु आकाश प्रकट होते हैं । अर्थात् पाचों तत्वों का जय होता है तब फिर योगी के लिये न रोग है न जरा, न दुःख है क्योंकि उसने वह शरीर पा लिया है कि जो योगी की अग्नि से बना है । धूप छाया शब्द से शीतोष्ण आदि द्वन्द्व समझने चाहिये । अतः योगी को शीतोष्ण आदि द्वन्द्व भी नहीं सताते ।
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हठयोगदीपिका में –
समाधि से युक्त शीत उष्ण आदि पदार्थों की ताडना आदि दुःखों को चन्दन आदि के सुरभि लेप के सुख को मान अपमान को नहीं जानता है । समाधि में पवन भी नहीं चलता क्योंकि उसका निरोध हो चुका है ।
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हठदीपिका में लिखा है कि –
योगी स्वस्थ अवस्था में अर्थात् इन्द्रीयाँ और अन्तःकरण की प्रसन्नता में स्थित होकर जाग्रत अवस्था में भी देह इन्द्रियों के व्यापार से भी शून्य सुषुप्त पुरुष के समान, बाहर की वायु का देह में ग्रहण रूप निश्वास और देह में स्थित रूप वायु का बाहर निकालना रूप उच्छासा इन दोनों से रहित निश्चल रहता है ऐसा योगी निश्चित ही मुक्त है । माया रूपी मेघ भी नहीं बरसता । अर्थात् माया के प्रभाव से योगी मुक्त है । चन्द्रमा सूर्य से भी उसका प्रकाश नहीं कर सकते । क्योंकि वह ब्रहमरूप हो गया । श्रुति में लिखा है कि – उसकी ही कान्ति से सारा विश्व प्रकाशित हो रहा है ।
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गीता में भी कहा है कि –
उस ब्रह्म को सूर्य चन्द्रमा अग्नि प्रकाशित नहीं कर सकते । काल की भी वहां कोई बाधा नहीं । हठयोग में लिखा है कि – समाधिस्थ मनुष्य को मृत्यु भी नहीं खा सकता । शुभ-अशुभ कर्मों का फल जो जन्म-मरण क्लेश है वह भी योगी को नहीं होता । सुख दुःख का भी कोई प्रभाव नहीं होता । क्योंकि वह इन्द्रियातीत ब्रहम रूप है । उसके शरीर पर कोई काल का भी प्रभाव नहीं होता क्योंकि जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति मूर्च्छा मरण रूप जो व्युत्थान दशा है उससे वह रहित है ।
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हठयोग में –
जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति मूर्च्छा मरण रूप जो पांच व्युत्थान रूप दशा है उससे वह रहित है । सब चिन्ताओं से मुक्त शव की तरह वृत्तियों के निरोध रूप में स्थित है । न उसको पाप पुण्य लगते । क्योंकि श्रुति में ज्ञानी को पाप पुण्य नहीं लगते । आगे होने वाला पाप पुण्य का आश्लेष भी योगी को नहीं होता ।
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श्रुति में –
जैसे कमल के पत्ते पर पानी नहीं ठहरता वैसे ही ज्ञानी के भी पाप पुण्य का लेश भी नहीं लगता । पाप शब्द से पुण्य का भी ग्रहण समझना । क्योंकि श्रुति में ऐसा ही लिखा है जो यह आत्मा है वह विशेष रूप से धारण करने वाला सेतु है । इस सेतु का दिन रात अतिक्रमण नहीं कर सकते । जरा मृत्यु शोक सुकृत दुष्कृत कुछ भी उसको प्राप्त नहीं होते अतः समाधि में ब्रह्म ही शेष रहता है और मैं दादू उसी का ध्यान करता हूं ।
(क्रमशः)
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