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*दादू आनंद सदा अडोल सौं, राम सनेही साध ।*
*प्रेमी प्रीतम को मिले, यहु सुख अगम अगाध ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*गंग अठारह कोस सथानत है,*
*न्हावन जात सदा मन भाई।*
*प्रौढ भये तठ नेम न छाडत,*
*प्रेम लख्यो निशि आउं तलाई ॥*
*खेद करो मत मानत नांहि सु,*
*आय रहाँ इत कैसे लखाई।*
*अंबुज फूलत मोहि निहार हु,*
*भांति भई वह जान सु आई ॥२५१॥*
जयदेवजी के आश्रम—से गंगाजी अठारह कोस दूर थी तो भी मन को प्रिय लगने से प्रतिदिन अपनी योगशक्ति के द्वारा आप स्नान कर आते थे।
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वृद्ध हो गये तब भी इस नियम को नहीं छोड़ते थे। इनका ऐसा प्रेम नियम देखकर गंगाजी ने रात्रि को कहा-अब शरीर वृद्ध हो गया है, सो नित्य स्नान का नियम छोड़ दो किन्तु जयदेवजी ने नहीं माना।
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तब गंगाजी ने कहा- तुम्हारे पास की पुष्करिणी में मैं आ जाऊँगी, फिर तुम वहाँ ही स्नान कर लिया करो। जयदेवजी ने पूछा- मैं कैसे जानूंगा कि आप आ गई हैं। गंगाजी ने कहा-देखो इसमें कमल नहीं हैं।
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जब इसमें सुन्दर कमल खिल उठे तब जान लेना कि मैं आ गई हूँ। दूसरे दिन गंगाजी के कथनानुसार उस पुष्करिणी में कमल खिल गये तब उन्होंने जान लिया कि गंगाजी आ गईं।
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गीत गोविन्द की किसी पुस्तक में जयदेवजी की माता का नाम 'राधादेवी' और किसी में रमादेवी भी लिखा है। इनका समय वि० सं० १०८२ तथा ११०७ के मध्य है। इनका ग्राम केन्दुबिल्व बंगाल देश में वीरभूम से प्राय दश कोस दक्षिण की ओर जयनद के उत्तर में है।
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अभी तक 'जयदेई' गंगा वहाँ प्रसिद्ध है। सज्जन लोक उसे गंगा के समान मानकर स्नान करते हैं। जयदेवजी की समाधि पर प्रतिवर्ष माघ की संक्रान्ति पर केन्दुबिल्व ग्राम में मेला लगता है, लाखों नर नारी आते हैं।
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*जयदेवजी के पूर्व के दो जन्म की कथा*
प्रथम जन्म में कर्नाटक देश के मथुरा ग्राम में एक धनी वैश्य थे। उनका एक वेश्या से अति प्रेम था, प्रति दिन उसके जाते थे। एक समय भादव मास में वर्षा हो रही थी। रात्रि अन्धेरी थी। नदी नालों में बाढ़ आ रही थी। आज आधी रात बीत जाने पर वैश्य वेश्या के घर चला। बीच में नदी पड़ती थी, उसे तैर कर पार किया।
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आगे वेश्या के घर का द्वार बन्द था। घर के पीछे की ओर एक सर्प लटक रहा था। उसको रस्सी समझ के पकड़ कर ऊपर चढ़ गया और वेश्या को जगाया। वेश्या ने आश्चर्य मानकर पूछा- तुम घर में कैसे आये। उसने अपने आने का समाचार सुनाया। छत की रस्सी देखने गई तो आगे सर्प लटक रहा था।
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तब उसने कहा- जैसे तुम्हारा मेरे में प्रेम है वैसा ही हरि में तुम करते तो तुम्हारे दोनों लोक सुधर जाते और यमदूत तो तुम्हारे पीछे कभी भी नहीं लगते। वेश्य ने पूछा- हरि कौन है? तुम बताओ छिपाओ मत। वेश्या के घर में श्रीकृष्ण भगवान् का एक चित्र था, वेश्या ने वह दिखाया।
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वैश्य के मन में अपने वर्तमान जीवन से बड़ी ग्लानि हो गई। उसने चित्र को उतार लिया। एक नदी के तट जाकर धैर्य पूर्वक बैठ गया और चित्र का ध्यान करता हुआ "प्रकट हु नाथ' 'प्रकट हु नाथ" इस प्रकार निरंतर प्रार्थना करते उसे बिना अन्न-जल के सात ४४ दिन हो गये।
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सातवें दिन के अन्त में भगवान् उसी दृढ़ प्रीति और प्रतीति देख कर चित्र से ही प्रकट में होकर दर्शन दिया और कहा- तुम वैश्य शरीर छोड़कर ब्राह्मण शरीर धारण करोगे। और मेरी कृपा से तुम्हारी बुद्धि बड़ी गंभीर हो जायेगी। फिर "करुणामृत" ग्रंथ की रचना करोगे।
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वैश्य ने प्रसन्न होकर कहा-प्रभो! मुझे यह वर दें कि मैं जब तक चाहूँ तब तक आपके यश का गान करता रहूँ। हरि ने कहा- तुम तीन जन्म तक हमारा सुयश गान करते रहोगे। इस जन्म में " शृंगारसमुद्र" ग्रंथ बनाओगे। दूसरे जन्म में "करुणामृत" नामक ग्रंथ बनाओगे। तीसरे जन्म में " गीतगोविन्द" ग्रंथ की रचना करके गोलोक वासी बनोगे।
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ऐसा कहकर हरि अन्तर्धान हो गये । वैश्य ने फिर 'शृंगारसमुद्र" रचा जिसमें हरिसम्बन्धी ही शृंगार रूप प्रीति का मार्ग है। दूसरे जन्म में ब्राह्मण होकर "करुणामृत" ग्रंथ रचा जो साहित्य शास्त्र का तिलक रूप है। तीसरे जन्म में जयदेव होकर "गीतगोविन्द" की रचना की। जिसका पूरा परिचय पीछे आ गया है।
(क्रमशः)
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