मंगलवार, 12 जुलाई 2022

*श्री रज्जबवाणी पद ~ ३८*

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*दादू मुसलमान महर गह रहै,*
*सबको सुख, किसही नहिं दहै ।*
*मुवा न खाइ, जीवत नहिं मारै,*
*करै बंदगी, राह संवारै ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग राम गिरी(कली) १, गायन समय प्रातः ३ से ५
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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३८ हिंसा त्याज्य । त्रिताल
हिन्दू तुरक सुनो रे भाई, काहू से मत होहु दुख दाई ।
बीज्या होहि उधारा देणा, किया न कांठे१ जाई ॥टेक॥
मार हिं जीव सोच बिन सौदा, मन मुख माँस गरासै२ ।
लेखा लियूं लखोगे प्राणी, यहु न टलैगी हाँसै ॥१॥
पग की पीड़ अश्म३ करि उन्हा४, दुख ऊपरि सु लगाया ।
संग५ पुकार सुनी सांई ने, हजरत दांत तुड़ाया ॥२॥
जौ की रोटी भाजी सेती६, मुहमद उमर गुजारी ।
आगे ज्वाब जबह७ का माँगै, यूं कर करद८ न धारी ॥३॥
ॠषि रहते जंगल जाय बैठे, झड़े पड़े फल खाये ।
जठर अग्नि जुगति सौं टाली, जीव न जगत सताये ॥४॥
हुये हमाय९ ओलिया१० साधू, बेअजर११ सुखदाई ।
जन रज्जब उनकी छाया१२ में, महर दया तिन पाई ॥५॥३८॥
हिंसा नहीं करनी चाहिये यह कह रहे हैं -
✦ हिन्दू और मुसलमान भाईयों ! हमारी बात सुनो - तुम किसी के दुख दाता मत बनो । जैसे बीजा हुआ उगता है, उधार दिया जाता है वह आता है, वैसे ही अपने किये कर्मो फल अपने पास आता है, दूर१ नहीं जाता ।
✦ मनमुखी प्राणी जीवों को मार कर मांस खाते हैं, यह व्यापार उनका बिना विचार का है । हे हिसंक प्राणियों ! जब तुमसे हिसाब लिया जायगा, तब देखोगे कि - तुम्हारे हिंसा कर्म का फल तुम्हें कितना दुख देगा । यह सजा हंसी से नहीं टलेगी, रोते हुये तुम्हें भोगनी पड़ेगी ।
✦ हजरत मुहम्मद ने अपने पैर की पीड़ा पर पत्थर३ को गर्म४ करके लगाया था । उस पत्थर५ की पुकार प्रभु ने सुनी और उसी पत्थर से हजरत के दांत तुड़ाये थे ।
✦ मुहम्मद ने जौ की रोटी शाक से६ खाकर अपनी आयु व्यतीत की थी । वे जानते थे कि - जीव हिंसा७ का जवाब आगे माँगा जायगा, इसी कारण जीवों को मार कर खाने के लिये उनने अपने हाथ में तलवार८ धारण नहीं की थी ।
✦ ॠषि जन वन में जा बैठे थे और हिंसा से रहित रहते थे । अपने आप झड़ कर पड़े हुये फल खाते थे, वे अपनी जठराग्नि को युक्ति से शांत करते थे, उन्होने जगत के जीवों को नहीं सताया था ।
✦ साधु-संत१० तो हमा९-पक्षी के समान परोपकारी हिंसारूप रोग११-से-रहित सबको सुख दाता ही हुये थे । साधु संतों की शरण१२ जाकर तो जीवों ने उनकी दया कृपा ही प्राप्त की है ।
(क्रमशः)

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