बुधवार, 27 जुलाई 2022

*संत हि आवत त्यांह१ रिझावत*

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*अगम अगोचर अपार अपरम्परा,*
*को यहु तेरे चरित न जानैं ।*
*ये शोभा तुमको सोहे सुन्दर,*
*बलि बलि जाऊँ दादू न जानैं ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद्यांश. ९२)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*दास कहै तिय दासि रहो इन,*
*हो न उदास तु पास रहावै।*
*जीम सु याहि जिमाय निशंक हि,*
*जीवत हैं सु मिले हरि गावै ॥*
*संत हि आवत त्यांह१ रिझावत,*
*दाबत पाँव सवाहि२ लडावै।*
*मास बदीत३ भये सु त्रयोदश,*
*ऊठ गये कछु बात कहावै ॥२५५॥*
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भक्त अपनी धर्मपत्नी को कहने लगे, तुम इनकी दासी के समान रहो। इनके खाने पीने की बात किसी को नहीं कहना। ये यदि तुम्हारे खान पान के व्यवहार से उदास नहीं होंगे तो अपने पास रहेंगे।
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जो भी और जितना भी ये जीमें वही और उतना ही निशंक होकर इनको जिमाना। यदि ऐसा करोगी तो जब तक अपने जीवित रहेंगे तब तक के लिये ये अच्छे नौकर मिल गये हैं। इनके भरोसे रहकर हम सदा हरि गुण गाते रहेंगे। कारण- संत सेवा में तो ये त्रुटि आने नहीं देंगे और अपने विशेष काम ही क्या है ? अन्तर्यामी सब कार्य भक्त और उसकी स्त्री की इच्छानुसार तत्काल कर देते थे, कहने का तो अवकाश ही नहीं देते थे।
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जो संत आते थे, उनको१ तो सेवा द्वारा अति प्रसन्न कर देते थे। उनके चरण दबाते थे तथा उनकी इच्छा से भी उनका सवाया२ लाड़ प्यार करते थे।
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इस प्रकार भक्त के घर संत सेवा करते हुये भगवान् को तेरह मास व्यतीत३ हो गये। फिर कुछ खाने पीने की बात भक्त की स्त्री ने पड़ोसिन को कह दी तब अन्तर्यामी उसी समय अन्तर्द्धान हो गये।
(क्रमशः)

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