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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ १०५/१०८*
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जीव नहीं तहँ ब्रह्म है, सब मंहि सकल प्रकास ।
किरन प्रसंगै दोइ कहै, सु कहि जगजीवनदास ॥१०५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव जहां नहीं है वहां भी ब्रह्म है वे सब में है । जैसे सूर्य व किरण दो है पर है तो सूर्य का अंश, इसी प्रसंग से कहकर समझाया है ।
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वस्तु एक आभास दोइ, निराभास निज नूर ।
कहि जगजीवन सहज थिति, सकल लोक भरपूर ॥१०६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वस्तु तो ब्रह्म सी एक ही है पर जीव होने से दो भासते हैं यह सहज स्थिति ही सकल लोक में व्याप्त है ।
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कोटि किरन परगट करै, कोटि गुपत हरि मांहि ।
कहि जगजीवन थान थिति७, को तिंहि बूझै नांहि ॥१०७॥
{७. थान थिति-स्थानस्थित(अचल), स्थित प्रज्ञ}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि करोड़ों किरणें प्रकट करते हैं व करोड़ों फिर भी गुप्त रहती हैं । जो स्थितप्रज्ञ हैं वे ही इस बात को जानते हैं सामान्य जन उनसे इस रहस्य को पूछते ही नहीं हैं ।
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जे बूझै तो कहै नहीं, कहै तो बूझै नांहि ।
कहि जगजीवन सबद थैं, अगम अगोचर मांहि ॥१०८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो जानते हैं वे कहते नहीं जो कहते हैं वे जानते नहीं हैं, कि परमात्मा तो स्मरण के शब्द में भी है ।
(क्रमशः)

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