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*जहँ सेवक तहँ साहिब बैठा, सेवक सेवा मांहि ।*
*दादू सांई सब करै, कोई जानै नांहि ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*नीर अनादिक त्याग दिये दिन,*
*तीन भये फिर पाय न वैसो।*
*भाग्य बिना तिय क्यों रु कही बिय१,*
*संतन सेवन को भृत कैसो ॥*
*अम्बर बोलि कहै हरि मैं हुत,*
*भूख मरो मत आन अँदेसो ।*
*प्रेम तुम्हार करयो वश है मम,*
*सेव करूं फिर मैं घर वैसो ॥२५७॥*
अन्तर्यामी के वियोग के दुःख से दुःखी होकर भक्त ने तीन दिन तक अन्न जल नहीं ग्रहण से किया। यही चिन्ता करते रहे कि वैसा नौकर फिर नहीं मिलने का।
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नारी से कहा- अभागिन। जब तुझ को कह दिया था कि अन्तर्यामी के खाने-पीने की बात किसी को नहीं कहना, फिर भी तूने दूसरे को क्यों कही? तूने देखा ही था, संतों की सेवा करने में कैसे अच्छा नौकर था।
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भक्त को अति दुखी देखकर तीसरे दिन आकाशवाणी द्वारा हरि ने कहा- वह तो मैं ही था, अब तुम अपनो हानि मानकर भूखों मत मरो।
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तुम्हारे प्रेम ने मुझे वश में किया है। यदि तुम चाहो तो फिर भी तुम्हारे घर पर बस करके मैं सेवा कर सकता हूँ।
(क्रमशः)
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