रविवार, 31 जुलाई 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ११३/११६*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ११३/११६*
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सोषत मरन सरूप धरि, जहँ आया तहँ जाइ ।
अहार व्यौहार अनादि रस, ज्यूं भूखा त्यूं खाइ ॥११३॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि वे प्रभु जीव को जब सोखते हैं तो उसका नाम मृत्यु होता है । और फिर जीव जहाँ से आता है वहां ही चला जाता है वह आहार व्यवहार व अन्य भोग सब अपनी इच्छा अनुसार करता है ।
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अदभुत चरित अगाध गति, कोइ न जांणै भेद ।
कहि जगजीवन रांमजी, कहँ बिरंचि४ कहाँ वेद ॥११४॥
(४. विरंचि = ब्रह्मा)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु के चरित्र अद्भुत है उसे कोइ नहीं जान सकता न ही उनकी लीला कोइ समझ सकता है, कि उसका क्या रहस्य है । जैसे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा द्वारा अद्भुत वेदों की रचना ये अद्भुत ही है ।
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कहां ए बाणी५ कहाँ विषनु, कहँ महेस कहँ सेस६ ।
कहि जगजीवन क्रिपा करि, कहिये रांम नरेस ॥११५॥
(५. बाणी = वेद या वागधिष्टात्री देवता, सरस्वती) (६. सेस = शेष नाग)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि कहां तो मां सरस्वती वेद रुप में कहा सृष्टि पालक विष्णुजी कहा संहार कर्ता भोले शिव कहां सृष्टि का आधार शेष जी, हे राम प्रभु आप इन सबकी महिमा बतायें ।
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इस्थिति७ सहज अगाध गति, सोहं सबद प्रकास ।
ब्रह्मा वाणी विष्णु हर८, सकती९ सेस निवास ॥११६॥
(७. इस्थिति = स्थित) (८. हर = शंकर) {९. सकती = शक्ति(दुर्गा आदि)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु की लीला सहज है । और गति गहन है जिसमे सोहम नाद स्वर प्रकाशित है । ब्रह्मा जी वेद विष्णु जी शिव व शक्ति सबका उसमें निवास है ।
(क्रमशः)

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