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*अन्तरगत औरै कछु, मुख रसना कुछ और ।*
*दादू करणी और कुछ, तिनको नांही ठौर ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ सांच का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*आप इसी इक भूपति से कहि,*
*स्वामि छिपावहु प्रीति हि देखूं ।*
*नीच विचारत अंतर पारत,*
*मान तिया हठ यूं अवरेखूं ॥*
*स्वामि मिले हरि आय कही इक,*
*सोच करे सत मैं नहिं लेखूं ।*
*कै पदमावति क्यों तुम रोवत,*
*वे सुख से अपने मन पेखूं ॥२४८॥*
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पद्मावती जी का उक्त वचन सुनकर राणी ने कहा- "ऐसी प्रेम की मूर्ति तो जगत् में एक आप ही हो।" फिर राणी ने उक्त बात राजा को भी कही और आग्रह किया कि आप पद्मावती जी के स्वामी जयदेवजी को बाग में ले जाकर कुछ समय के लिये छिपा दें, जिससे में पद्मावती जी की प्रीति देख लूं।
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राजा ने कहा-"तूने ऐसा नीच विचार किया है, इससे हमारी भक्ति में अन्तराय डाल दोगी।" रानी ने हठ किया कि मैं तो इस प्रकार देखना ही चाहती हूँ। रानी का आग्रह मान कर राजा ने जयदेवजी को बाग में छिपा दिया।
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रानी ने एक दासी को सिखा रखा था। रानी जाकर पद्मावती जी के पास बैठी तब दासी जाके दुःख भरी वाणी से बोली- स्वामी जी तो वैकुण्ठ पधार गये। यह सुन कर रानी रो रो कर शोक करती हुई बुरी भांति भूमि में लौटने लगी।
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पद्मावती जी ने कहा- मैं तो यह सत्य नहीं देखती हूँ, तुम व्यर्थ ही क्यों शोक करती हो? वे तो सुखपूर्वक विराजे हुये हैं, यह मैं अपने मन में ठीक रूप से देख रही हूँ।
(क्रमशः)

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