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*हिरदै की हरि लेइगा, अंतरजामी राइ ।*
*साच पियारा राम को, कोटिक करि दिखलाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग राम गिरी(कली) १, गायन समय प्रातः ३ से ५
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
३५ हरि हृदय देखैं । झपताल
हेरि१ हेरि हेरै हरी, हिरदै की हेरै२ ।
राखण की राखै प्रभु, फेरण की फेरै ॥टेक॥
ताकि३ ताकि ताकै मन हुं, त्रिगुणी४ में न्यारा ।
उरझे सेती५ अहित भाव, सुरझे सौं प्यारा ॥१॥
देखि देखि देखे दिल हुं, दूजे नहिं धीजे६ ।
मन वचन कर्म त्रिशुद्ध ह्वै, सोई सुन लीजे ॥२॥
परखि परखि परखे तहां, पति७ पारिख८ पूरा ।
रज्जब रज१० तज काढ ही, हरि हेरि हजूरा११ ॥३॥३५॥
हरि क्रिया और वचन व्यवहार को न देखकर हृदय की भावना ही ग्रहण करते हैं यह कह रहे हैं -
✦ हरि स्थूल शरीर की क्रिया और वचन व्यवहार को देख१ कर हृदय की ओर देखते हुये हृदय की ही परीक्षा२ करते हैं । यदि हृदय की भावना रखने योग्य होती है तो उसे प्रभु रखते हैं और लौटाने की होती है तो उसे लौटा देते हैं ।
✦ चित्त बुद्धि को देखते३ हुये मन को देखते हैं कि - वह त्रिगुणात्मिका माया४ में फंसा है या माया से अलग है । जो माया में फंसा है उसके साथ५ अहित भाव रखते हैं अर्थात उससे प्रेम नहीं करते और जो माया से अलग हो गया है उससे प्रेम करते हैं ।
✦ क्रिया और वचनों को देखते हुये विशेष रूप से हृदय को ही देखते हैं । दूसरे क्रिया आदि पर विश्वास६ नहीं करते मन वचन, और कर्म तीनों द्वारा जो शुद्ध होता है, उसी की प्रार्थना सुन कर उसे अपनाते हैं ।
✦ परीक्षा करने में पूर्ण परीक्षक८ प्रभु७ क्रिया वचनादि की परीक्षा करते हुये विशेष रूप से वहाँ हृदय थल में से परीक्षा करते हैं । जो हृदय से रजोगुण१० त्याग देता है, उसके हृदय को हरि देखकर उसे संसार से निकाल कर अपने पास११ रखते हैं ।
(क्रमशः)

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