सोमवार, 4 जुलाई 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.२१५

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२१५)*
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*२१५. चतुस्ताल
*हरि केवल एक अधारा, सोई तारण तिरण हमारा ॥टेक॥*
*ना मैं पंडित पढ़ि गुणि जानूं , ना कुछ ज्ञान विचारा ।*
*ना मैं अगमी ज्योतिग जानूं, ना मुझ रूप सिंगारा ॥१॥*
*ना तप मेरे इन्द्रिय निग्रह, ना कुछ तीरथ फिरणां ।*
*देवल पूजा मेरे नाहीं, ध्यान कछू नहिं धरणां ॥२॥*
*योग युक्ति कछु नाहीं मेरे, ना मैं साधन जानूं ।*
*औषधि मूली मेरे नाहीं, ना मैं देश बखानूं ॥३॥*
*मैं तो और कछू नाहिं जानूं, कहो और क्या कीजे ।*
*दादू एक गलित गोविन्द सौं, इहि विधि प्राण पतीजे ॥४॥*
न तिरने योग्य को भी वह हरि तार देता है अपनी कृपा से ऐसा हरि ही मेरा आधार है । मैं पढने वाला तथा पढ़ाने वाला पंडित नहीं हूं । किन्तु मैं तो अज्ञानी हूं । न मैं भविष्य वक्ता हूं न ज्योतिश्शास्त्र में चतुर हूं । न मैं नाना रूप बनाकर श्रृंगार करने वाला हूं ।
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न मैं इन्द्रिय निग्रह रूप तप करता हूं । न तीर्थों में घूमता हूं । न किसी देवता का पूजन ही करता । न किसी का ध्यान करता न योग और युक्तियों को जानता हूं । किन्तु मैं तो सब साधनों से रहित हूं । न मैं औषधियों को जानने वाला वैद्य हूं न मैं कथावाचक पंडित हूं । मैं तो कुछ भी साधन नहीं जानता अतः अब आप ही कहिये कि मैं क्या करूं?
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मैं तो केवल गोविन्द की भक्ति रस में डूब रहा हूं । अतः सब साधन हीन को भी गोविन्द भगवान् ! अवश्य दर्शन देंगे । ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है । इस भजन में परा पूजा का वर्णन है । यह साधनों से नहीं प्राप्त होती । इसमें तो केवल प्रभु का प्रेम ही साधन हैं, नहीं तो सर्व व्यापक सच्चिदानन्द भगवान् की साधनों से कैसे पूजा हो सकती है?
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निर्मल परमात्मा को स्नान की आवश्यकता नहीं है । निरंजन को धूप दीप आदि से क्या प्रयोजन है? जो निजानन्द तृप्त है उसको नैवेद्य की क्या आवश्यकता है । जो वेदवाणी से भी नहीं जाना जा सकता उसकी स्तोत्रों से क्या स्तुति की जाय? वह तो परम प्रेमस्वरुपा भक्ति से ही प्राप्त होता है ।
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लिखा है कि -
ब्रह्म वेत्ताओं को सर्वदा सब अवस्थाओं में भावमयी पूजा एकत्व बुद्धि से करनी चाहिये । यह ही परापूजा कहलाती है ।
हे शम्भो ! मेरा आत्मा ही तुम हो । बुद्धि पार्वती जी है । मेरे प्राण आपके गण हैं । शरीर आपकी कुटिया है । नाना प्रकार की भोग सामग्री आपका पूजोपचार हैं । निद्रा समाधि है । मेरे चरणों का चलना आपके प्रदक्षिणा है और जो मैं कुछ भी बोलता हूँ वह आपके स्तोत्र हैं । अधिक क्या, मैं जो कुछ भी करता हूं वह सब आपकी आराधना है । इसी को पराभक्ति कहते हैं ।
(क्रमशः)

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