शुक्रवार, 15 जुलाई 2022

*श्री रज्जबवाणी पद ~ ३९*

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*दादू विरहनी कुरलै कुंज ज्यूं,*
*निशदिन तलफत जाइ ।*
*राम सनेही कारणै, रोवत रैन विहाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग राम गिरी(कली) १, गायन समय प्रातः ३ से ५
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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३९ विरह व्यथा । दादरा
म्हारो मंदिर सूनों राम बिन, विरहनि नींद न आवे रे ।
परोपकारी ना मिलै, कोई गोविंद आन मिलावे रे ॥टेक॥
चेती विरहनि चिंतन१ भाजै, अविनाशी नहीं पावे रे ।
इहिं वियोग जागे निशि वासर, विरहा बहुत सतावे रे ॥१॥
विरह वियोग विरहनी बेधी, घर वन कछु न सुहावे रे ।
दह दिशि देखि भयो चित चक्रित२, कौन दशा दरशावे रे ॥२॥
ऐसा सोच पड़ा मन मांहीं, समझ समझ धूंधावे३ रे ।
विरह बाण घट अंदर लागे, घायल ज्यों घूमावे रे ॥३॥
विरह लाय४ तन पिंजर छीना, पिव को कौन सुनावे रे ।
जन रज्जब जगदीश मिले बिन, पल पल वज्र बिहावे५ रे ॥४॥३९॥
प्रभु वियोग जन्य दुख को बता रहे हैं -
✦ मेरा हृदय मंदिर राम के साक्षात्कार बिना शून्य हो रहा है, मुझ वियोगनी को निद्रा भी नहीं आती । कोई व्यक्ति सा परोपकारी संत भी नहीं मिलता, जो गोविंद को लाकर मिला दे ।
✦ जब से वियोगनी बुद्धि प्रभु दर्शनके लिये अचेत हुई है तब से उसके अन्य विचार१ तो सब भाग गये हैं और इधर अविनाशी राम का साक्षात्कार भी नहीं हो रहा है । इस वियोग व्यथा के जागने के बाद तो विरह रात्रि दिन बहुत दु:ख देता है,
✦ विरह वियोग व्यथा से विरहनी विद्ध हो गई है, घर वन कुछ भी तो अच्छा नहीं लगता । दशों दिशाओ को देखकर चित्त चकित२ हो रहा है । पता नहीं यह कौन सी अवस्था देखने में आ रही है ।
✦ मन में ऐसा विचार आ पड़ा है कि - उसको समझकर भीतर से धुंआँ३ निकल रहा है अर्थात गर्म विश्वास आ रहा है । विरह रूप बाण अंतकरण के भीतर लगे है, उसकी पीड़ा शरीर को घायल के समान घुमा रही है ।
✦ विरह अग्नि४ ने शरीर रूप पिंजरे को क्षीण कर दिया है । यह बात प्रियतम प्रभु को कौन सुनावे । उन जगदीश्वर के मिला बिना एक एक क्षण वज्र के समान कठोर अर्थात दु:ख से निकल५ रहा है ।
(क्रमशः)

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