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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२१९)*
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*२१९. काल चेतावनी । राज मृगांक ताल*
*मन रे ! सोवत रैन बिहानी, तैं अजहूँ जात न जानी ॥टेक॥*
*बीती रैन बहुरि नहीं आवे, जीव जाग जनि सोवे ।*
*चारों दिशा चोर घर लागे, जाग देख क्या होवे ॥१॥*
*भोर भयो पछतावन लागे, मांहीं महल कुछ नांहीं ।*
*जब जाइ काल काया कर लागे, तब सोधे घर मांहीं ॥२॥*
*जाग जतन कर राखो सोई, तब तन तत्त न जाई ।*
*चेतन पहरे चेतत नांहीं, कहि दादू समझाईं ॥३॥*
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भा•दी•-हे जीव ! मोहनिशायां स्वापं स्वापं जीवनरूपा रात्रिस्त्वयाऽतिवाहिता । अधुना त्वया किं न ज्ञायते यदायुष्यं तव क्षीणप्रायम् । अतस्त्वं चेत । नहि गतमायुः पुनरैति । अत: शीघ्रसावधानेन भाव्यम् । मा त्वं शयान मवलम्बस्व । कामादय: पाटच्चरा स्तवहृदयमन्दिराज्ञानधनं लुठन्ति । त्वं सावधानो भूत्वापश्यकिं घटते तव जीवजे । यथा रौद्रैर्वातापैक्लैर्वनानिल: पीयते तथैव शरीरविलस्थित: दुःखदाहप्रदै रोगरायुर्निपीयते । रोकिञ्चायुरपिचलं पल्लवकोणग्रसंलग्नाम्बुविन्दुवत् क्षणभङ्गुरञ्चेति को न जानाति । तृष्णाऽपि दौर्भाग्यदायिनी राक्षसीव पुंसांहृदयं भिनति । तदपि जीवोऽयं न चेतते । वाल्यमल्पेनैव कालेन व्यत्तेति । यौवनश्रीरपि न स्थिरा । ततो जराजीर्णकलेवरं वार्धक्यकम्पितं यदा भवति तदापश्चातापोऽवशिष्यते । नहि तदा शरीरमन्दिरे बलं पौरुषं धैर्यादिकं स्थाष्यति तदा त्वं कि करिष्यसि । अतोऽद्यैव सावधानो भूत्वा त्वं तत्वधनं दैवसंपद्गुणञ्च रक्ष रक्ष । वारं वारं संबोधनेऽपि न चेतयसे तर्हि पश्चात्तापे पतिष्यसि । एष एव तव समय: सावधानस्य, बार्धक्ये तु न कोऽपि ते सहाय: स्यादवधानविधानस्य । यस्तु वाल्य एव जागर्ति ज्ञानधनं यत्नेन रक्षति तस्य तत्वज्ञानेन मुक्तिर्भवति ।
उक्तं हि योगवासिष्ठे वैराग्ये :: जराकर्पूरधवलं देहकर्पूरपादपम् ।
मुने मरणमातङ्गो नून मुद्धरति क्षणात्॥
मुने राज्ञो आगच्छतोऽग्रे निर्याति स्वाधिव्याधिपताकिनी ॥
न जिताः शत्रुभिः संख्ये प्रविष्टा येऽद्रिकोटरे ।
ते मरणस्य जरा धवलचामरा जराजीर्णराक्षस्या पश्याशु विजिता मुने ॥
किं तेन दुर्जीवितदुग्रहेण जरागतेनापि हि जीव्यते यत् ।
जरा जगत्या मजिता जनानां सर्वेषणास्तात तिरस्करोति ॥
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हे जीव ! तू मोह निशा में सो सो कर जीवन रूपी रात्रि को यूं ही व्यतीत कर दी । क्या तू अब भी नहीं जान रहा है कि तेरी आयु प्रायः नष्ट हो चुकी है । इएलिए सावधान हो जा । गई हुई आयु फिर से लौटकर नहीं आती है । शीघ्र चेत जा, सोवे मत । कामादि शत्रु तेरे हृदय मन्दिर से ज्ञान धन को चुरा रहे हैं । तू सावधान हो कर देख क्या हो गया है?
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जैसे भयंकर सर्प् वन की वायु को पी जाते हैं वैसे ही दुःख और डाह को देने वाला रोग तेरी आयु को पी रहे हैं । यह आयु भी चल और पत्ते के अग्र भाग पर स्थित जल बिन्दु की तरह क्षणभंगुर है, यह कौन नहीं जानता । दुर्भाग्य को देनेवाली यह तृष्णा भी राक्षसी की तरह से मनुष्य के हृदय को नष्ट कर रही है । फिर भी यह जीव सावधान नहीं होता ।
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यह बाल्यावस्था तो थोडे ही समय में नष्ट हो जायगी । यौवन भी स्थिर नहीं है । जब बुढापे से जीर्ण हुआ शरीर कांपने लगेगा तब तू क्या करेगा । उस समय शरीर मन्दिर में बल पौरुष धैर्य आदि धन नहीं मिलेगा । तब मृत्यु भी शरीर धारण करके प्रकट होकर सहसा तुझे खाने को उद्द्यत होगी । तब तुम क्या करोगे । अतः अभी से सावधान न होकर तत्व ज्ञान और दैवी संपदा के गुणों की रक्षा करो ।
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बार बार सावधान करने पर भी तू नहीं चेतता है तो फिर बुढापे में पश्चाताप करेगा । यह ही समय सावधान होने का है बुढापे में तेरा कोई भी सहायक नहीं होगा । जो बाल्यकाल में ही जाग कर ज्ञान धन की रक्षा कर लेता है । वह मुक्त हो जाता है ।
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योग वासिष्ठ में लिखा है कि –
हे मुने ! कपूर से सफेद हुए केले के पेड को हाथी क्षण भर में उखाड कर फेंक देता है । उसी प्रकार मृत्यु रूपी गजराज वृद्धावस्था से कपूर की तरह सफेद हुए शरीर को निश्चय ही क्षण भर में उखाड फेंकता है ।
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हे मुने ! यह मरण रूपी राजा है । इसके जरा रूपी सफेद चमर डुलते हैं, और जब यह आता है तो आधि व्याधि रूप सेना इसका स्वागत करने के लिये आगे आगे आते हैं ।
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हे मुने ! जिसको कोई भी युद्ध में जीत नहीं सकता था, जो पर्वतों की गुहाओं में रहते थे, उनको भी इस जरा से जीर्ण शरीरवाली इस जरा रूपी राक्षसी ने जीत लिया ।
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हे तात ! जो वृद्धावस्था को प्राप्त हो कर भी जीता है । उस दुःख भरे जीवन के लिये दुराग्रह से क्या लाभ है । भूतल पर किसी से भी पराजित न होने वाली यह जरा अवस्था मनुष्यों की इच्छाओं का तिरस्कार कर देती है । उनकी किसी भी इच्छा को पूर्ण सफल नहीं होने देती ।
(क्रमशः)
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