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*गंगा यमुना सरस्वती, मिलैं जब सागर मांहि ।*
*खारा पानी ह्वै गया, दादू मीठा नांहि ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग राम गिरी(कली) १, गायन समय प्रातः ३ से ५
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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३७ कुसंग । कहरवा
करि न कुसंगति आतमा, गुरु ज्ञान विचारी ।
सकल बुरे का मूल है, सुन सीख सु सारी ॥टेक॥
चोर जार बटपार१ ह्वै, बहु करे बुराई ।
संगति करि संकट सबै, नीके निरताई२ ॥१॥
काया संगति कपट में, मन मनसा३ मैली ।
प्राणि पाप पूरण करै, पंचन की सैली४ ॥२॥
माया मिल मैले सबै, सब लोक मँझारा ।
जन रज्जब रज५ ऊतरै, रटि राम पियारा ॥३॥३७॥
कुसंग से हानि होती है, यह कह रहे हैं -
✦ हे जीवात्मा ! कुसंग नहीं करके गुरु के ज्ञान का विचार कर । कुसंग संपूर्ण बुराइयों का मूल कारण है, उसे छोड़ देना चाहिये । यही संपूर्ण शिक्षा का सार है सुन ले ।
✦ कुसंग से प्राणी चोर व्यभिचारी, लुटेरा१ बन जाता है ओर बहुत सी बुराइयां करने लग जाता है हमने अच्छी प्रकार विचार२ कर लिया है, कुसंगति से सभी दुख आते हैं ।
✦ कुसंग से शरीर में कपट आ जाता है मन, बुद्धि३ मलीन हो जाते हैं । पंच ज्ञानेन्द्रियों की विषय भोग की रीति४ में पड़कर प्राणी रूप से पाप करने लगता है ।
✦ कपट रूप माया से मिलने पर सभी मलीन हो जाते हैं । सभी लोकों में ऐसा ही है । कुसंगति से लगे पाप५ प्यारे राम का चिन्तन करने से ही उतरते हैं ।
(क्रमशः)

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