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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२१७)*
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*२१७. त्रिताल*
*हाँ माई ! मेरो राम बैरागी, तजि जनि जाइ ॥टेक॥*
*राम विनोद करत उर अंतर, मिलिहौं बैरागिनि धाइ ॥१॥*
*जोगिन ह्वै कर फिरूँगी विदेशा, राम नाम ल्यौ लाइ ॥२॥*
*दादू को स्वामी है रे उदासी, रहिहौं नैन दोइ लाइ ॥३॥*
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भान्दी०-हे मातः ! मम स्वामी रामो वैराग्यवानस्ति । कदाचित् स मां त्यक्त्वाऽन्यत्रगच्छेत्तर्हि मम कीदृशी दशा स्यात् ? नहि न हि सखि । स तु त्वद् हृदयमन्दिरे प्रेम तन्तुना बद्ध सन् त्वया सह प्रेमक्रीडां तनुते । अत: सः कथं त्वा हातुं समर्थो भवेत् । अहमपि तदर्थ वैराग्यमवलम्बय तीर्णसंसारसागरः शीघ्रं तच्चरणारविन्दयोः पतिष्यामि । तथापि स भगवान् न प्राप्येत तर्हि वैराग्येणयोगिनी भूत्वा रामनामस्मरणं कुर्वती दिक्षु परिभ्रमिष्यामि । यद्यपि मम स्वामी विरक्तोऽस्ति तथापि नेत्रद्वयेन संपश्यन्ती तद्रूपतां गमिष्यामि । अस्मिन् पद्ये भगवत्प्राप्तये वैराग्यमेव साधनमित्युक्तं वर्तते ।
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उक्तं हि वासिष्ठे उपशमे ::
अपि राज्यादपि स्वर्गादपीन्दोरपि माधवात् ।
अपि कान्तासमासङ्गान्नैराश्य परमं सुखम् ॥
तृणवन्नोपकुर्वन्ति यत्र त्रिभुवनश्रियः ।
परानिवृतिः साधोर्नैराश्यादुपलभ्यते ॥
गोष्पदं पृथिवी मेरुः स्थाणु राशा: समुगिकाः
तृणं त्रिभुवन राम नैराश्यालंकृताकृतेः ॥
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सर्ववेदान्तसार संग्रहेऽप्युक्तम्::
सुखमितिमलराशौ ये रमन्तेऽत्रगेहे क्रिमय इव कलत्रक्षेत्रपुत्रानुषक्त्या सुरपद इव तेषां नैव मोक्षप्रसङ्गस्त्वपि तु निरयगर्भावासदुःखप्रवाहः ।
येषामाशा निराशा स्याद्दारापत्यधनादिषु ।
तेषां सिद्ध्यति नान्येषां मोक्षाशाभिमुखी गतिः ।
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हे मात ! मेरा राम तो वैराग्यवान् है अतः वह कभी मुझे त्याग कर चला जाय तो मेरी क्या दशा होगी? नहीं, नहीं, सखि ! वह तो तेरे हृदय मन्दिर में तेरे प्रेम तन्तुओं से बंधा हुआ तेरे साथ प्रेम क्रीडा कर रहा है, अतः वह तुम को कैसे छोड सकता है? हां सखी मैं भी उसके लिये वैराग्य धारण करके उसके चरणों में गिर जाऊंगी, जिससे मैं संसार सागर से पार हो जाऊंगी ।
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फिर भी भागवान न ही प्राप्त होंगे तो मैं वैराग्य धारण करके योगिनी बनी हुई रामनाम का स्मरण करती ही सब दिशाओं में भ्रमण करती रहूंगी । यद्यपि मेरा स्वामी वैराग्यवान् है फिर भी मैं अपने दोनों नेत्रों से उनको देखती हुई तद्रूप बन जाऊंगी । इस भजन में भगवान् की प्राप्ति के लिये वैराग्य को साधन बतलाया है क्योंकि वैराग्य के बराबर कहीं थोडा सा भी सुख नहीं है ।
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योगवासिष्ठ में लिखा है कि –
हे श्री राम ! मनुष्य को राज्य से न स्वर्ग से न चन्द्रमा से, न वसन्त से, न स्त्री के कमनीय संग से उत्तम सुख शान्ति प्राप्त हो सकती है अजिसी आशा त्याग से मिटी है । क्योंकि आशाओं का त्याग ही सब से अधिक सुख शांतिमय है ।
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जिस परम निर्वाण रूप मोक्ष के लिये तीनों लोकों की संपत्तियां तिनके की तरह कुछ भी काम नहीं देती किन्तु आशा के त्याग से ही मोक्ष प्राप्त होता है । निराशा रूपी अलंकार से भूषित मनुष्य के लिये पृथ्वी गाय के खुर की तरह तुच्छ तथा सुमेरु स्थाणु की तरह और त्रिभुवन की लक्ष्मी तृण की तरह तुच्छ होती है ।
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वेदान्तसिद्धांतसारसंग्रह में –
जो मानव इस मल मूत्र की राशि शरीर में सुख मान कर रमण करता है और स्त्री पुत्र कलत्र क्षेत्र आदि में आसक्त होकर स्वर्ग की तरह रमण करते हैं, वे कीट की तरह हैं उनमें और विष्ठा में रमण करने वाले कीडे में कोई भेद नहीं है ।
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उनको कभी मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता किन्तु वे बार बार गर्भवास के दुःख प्रवाह में पडते रहते हैं । जिन्होंने स्त्री पुत्र धनादिकों की आशा को निराशा में परिणत कर दिया(अर्थात् इनसे उदासीन हो गये) उनको मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त होती है । अतः संसार से वैराग्य धारण करके भगवान् के नाम को ही जपते रहना चाहिये ।
(क्रमशः)
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