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*दादू सेवग सेवा कर डरै, हम थैं कछु न होइ ।*
*तूँ है तैसी बन्दगी, कर नहिं जाणै कोइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*चौंक परयो सुन भक्ति करी किमि,*
*आप हरी पहि सेव कराई।*
*भक्त कहै मम संत बड़े बड़,*
*भक्ति करी नहिं लोक दिखाई ॥*
*आप दयाल निहाल करै जन,*
*रंच करै तिन भौत मनाई।*
*धाम विराजत मैं नहिं जानत,*
*आय मिलें अब पाँव पराई ॥२५८॥*
आकाशवाणी सुनकर भक्त तिलोचन आश्चर्य में पड़ गया और मन में विचार करने लगा कि मैंने यह क्या भक्ति करी, उलटी भगवान् से सेवा कराई।
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बड़े से बड़े संत मुझे भक्त कहते हैं किन्तु मैने तो वास्तव में भक्ति नहीं की, केवल लोकदिखावे का ही काम किया है।
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भगवान् स्वय ही दयालु हैं, भक्त को दर्शनादि देकर निहाल कर देते हैं। भक्त यदि रंच मात्र करता है तो उसे भगवान् बहुत मानते हैं।
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वे भगवान् मेरे घर पर रहे भी किन्तु मैं नहीं जान सका। यदि अब आकर मिलें तो उन के चरणों में पड़ जाऊँगा।
(क्रमशः)

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