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🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
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*ये दोनों ऐसी कहैं, कीजे कौन उपाइ ।*
*ना मैं एक, न दूसरा, दादू रहु ल्यौ लाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ लै का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद १०८*
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*दक्षिणेश्वर में भक्तों के संग में(१)भक्तियोग*
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श्रीरामकृष्ण कमरे में छोटे तखत पर समाधिमग्न बैठे हुए हैं । सब भक्त जमीन पर बैठे हुए टकटकी लगाये उन्हें देख रहे हैं । महिमाचरण, रामदत्त, मनोमोहन, नवाई चैतन्य, नरेन्द्र, मास्टर आदि कितने ही लोग बैठे हुए हैं । आज होती है, फाल्गुन पूर्णिमा, महाप्रभु श्रीचैतन्यदेव का जन्मदिन है । रविवार, १ मार्च १८८५ ई. ।
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भक्तगण एकटक देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण की समाधि छूटी । इस समय भी भाव पूर्ण मात्रा में है । श्रीरामकृष्ण महिमाचरण से कह रहे हैं - "बाबू, हरिभक्ति की कोई कथा – ”
महिमाचरण -
"आराधितो यदि हरिस्तपसा ततः किम् ।
नाराधितो यदि हरिस्तपसा ततः किम् ॥
अन्तर्बहिर्यदि हरिस्तपसा ततः किम् ।
नान्तर्बहियदि हरिस्तपसा ततः किम् ॥
विरम विरम ब्रह्मन् किं तपस्यासु वत्स ।
व्रज व्रज द्विज शीघ्र शंकरं ज्ञानसिन्धुम् ॥
लभ लभ हरिभक्तिं वैष्णवोक्तां सुपक्वाम् ॥
भवनिगड निबन्धच्छेदनीं कर्तरीं च ॥
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“'नारद-पंचरात्र' में है कि नारद जब तपस्या कर रहे थे, उस समय यह दैववाणी हुई - 'यदि हरि की आराधना की जाय तो फिर तपस्या की क्या आवश्यकता ? और यदि हरि की आराधना न की जाय तो भी तपस्या की क्या आवश्यकता ? अन्दर बाहर यदि हरि ही हो तो फिर तपस्या का क्या प्रयोजन ?
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और अन्दर बाहर यदि हरि न हों तो भी तपस्या का क्या प्रयोजन ? अतएव हे ब्रह्मन्, तपस्या से विरत होओ । वत्स, तपस्या की क्या आवश्यकता है ? हे द्विज, शीघ्र ही ज्ञानसिन्धु शंकर के पास जाओ । वैष्णवों ने जिस हरिभक्ति की महिमा गायी है उस सुपस्व भक्ति का लाभ करो । इस भक्तिरूपी कटार से भवबंधन कट जायेंगे ।’"
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श्रीरामकृष्ण - जीवकोटि और ईश्वरकोटि, दो हैं । जीवकोटि की भक्ति वैधी भक्ति है - इतने उपचार से पूजा की जायेगी, इतना जप और इतना पुरश्चरण किया जायेगा । इस वैधी भक्ति के बाद है ज्ञान । इसके बाद है लय । इस लय के बाद फिर जीव नहीं लौटता ।
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"ईश्वरकोटि की और बात है - जैसे अनुलोम और विलोम । 'नेति नेति' करके वह छत पर पहुँचकर जब देखता है, कि छत जिन चीजों की - चूना, सुरखी और ईंटों की - बनी हुई है – सीढ़ी भी उन्हीं चीजों की बनी हुई है, तब वह चाहे तो छत में रह जाय, चाहे चढ़ना-उतरना जारी रखे । वह दोनों ही कर सकता है ।
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"शुकदेव समाधिस्थ थे । निर्विकल्प समाधि - जड़ समाधि हो गयी थी । भगवान् ने नारद को भेजा - परीक्षित् को भागवत सुनाना था । उधर नारद ने देखा कि शुकदेव जड़ की तरह बाह्य चेतना से रहित बैठे हुए हैं । तब नारद वीणा बजाते हुए चार श्लोकों में श्रीभगवान् के रूप का वर्णन गाने लगे । जब वे पहला श्लोक गा रहे थे, तब शुकदेव को रोमांच हुआ । क्रमश: आँसू बहने लगे । भीतर - हृदय में चिन्मयस्वरूप के दर्शन होने लगे । जड़ समाधि के पश्चात् फिर रूप के दर्शन भी हुए । शुकदेव ईश्वरकोटि के थे ।
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"हनुमान ने साकार और निराकार दोनों के दर्शन कर लेने के पश्चात् श्रीराम की मूर्ति पर अपनी निष्ठा रखी थी । चिद्घन आनन्द की मूर्ति वही श्रीराम मूर्ति है ।
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"प्रह्लाद कभी तो 'सोऽहम्' देखते थे और कभी दासभाव में रहते थे । भक्ति न लें तो क्या लेकर रहें ? इसीलिए सेव्य और सेवक का भाव लेना पड़ता है, - तुम प्रभु हो, मैं दास - यह भाव हरि-रसास्वादन के लिए । रस-रसिक का यह भाव है - हे ईश्वर, तुम रस हो, मैं रसिक हूँ ।
"‘भक्ति के मैं' में, 'विद्या के मैं' में तथा 'बालक के मैं' में दोष नहीं ।
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शंकराचार्य ने विद्या का 'मैं' रखा था - लोकशिक्षा के लिए । बालक के 'मैं' में दृढ़ता नहीं है । बालक गुणातीत है - वह किसी गुण के वश नहीं । अभी अभी वह गुस्सा हो गया । थोड़ी देर में कहीं कुछ नहीं । देखते ही देखते उसने खेलने के लिए घरौंदा बनाया, फिर तुरन्त ही उसे भूल भी गया । अभी तो खेलनेवाले साथियों को वह प्यार कर रहा है, फिर कुछ दिनों के लिए अगर उन्हें न देखा तो सब भूल भी गया । बालक सत्त्व, रज और तम किसी गुण के वश नहीं है ।
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“तुम भगवान् हो, मैं भक्त हूँ, यह भक्तों का भाव है, - यह 'मैं' 'भक्ति का मैं' है । लोग 'भक्ति का मैं' क्यों रखते हैं ? इसका कुछ अर्थ है । 'मैं' मिटने का तो है ही नहीं, तो फिर वह पड़ा रहे - 'दास का मैं', 'भक्त का मैं' होकर । "लाख विचार करो, पर 'मैं’ नहीं जाता ।
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'मैं' मानो कुम्भ स्वरूप है, और ब्रह्म है समुद्र, चारों ओर जल राशि । कुम्भ के भीतर भी जल है, बाहर भी जल । पर कुम्भ तो है ही । यही 'भक्त के मैं' का स्वरूप है । जब तक कुम्भ है, तब तक 'मैं' और 'तुम' है; तुम भगवान् हो, मैं भक्त हूँ, तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ; यह भी है । विचार चाहे लाख करो, परन्तु इसे छोड़ने का उपाय नहीं । कुम्भ अगर न रहे, तो और बात है ।"
(क्रमशः)

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