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*दादू आनंद सदा अडोल सौं, राम सनेही साध ।*
*प्रेमी प्रीतम को मिले, यहु सुख अगम अगाध ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*सूर हु सागर आप कहै पद,*
*गाय इसे मम छाय न आवै ।*
*सातक आठक गाय सुनावत,*
*सूर हँसे सु प्रभात बतावै ॥*
*चिन्त भई हरि जान लिई पद,*
*वे सु बनाय रु सेज रखावै।*
*फेरि सुनावत लै सुख पावत,*
*पक्ष बतावत सो सब गावै ॥२७१॥*
एक समय सूरसागर के रचयिता सुरदासजी ने आपको कहा- आप बड़े चतुर हैं। अपने रचित ऐसे पद गाकर सुनाइये जिनमें मेरे पदों की छाया नहीं हो।
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जब कृष्णदासजी ने ७-८ गाकर सुनाये तब सूरदासजी हँस पड़े और बताया इनमें तो मेरे पदों की छाया है।
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तब कृष्णदास जी को चिन्ता सी हो गई। कृष्णदास जी को यह दशा हरि ने जान ली और उन हरि ने सुन्दर पद बनाकर शय्या पर रख दिया।
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फिर वह पद सूरदासजी को सुनाया। उसे सुनकर सूरदासजी ने अति सुख प्राप्त किया और कहा- आपके ठाकुरजी ने आपका पक्षपात किया है। यह तो उन हरि का ही बनाया हुआ पद है, आपका नहीं है। उस भजन को सब लोग गाते हैं। उसके आदि और अन्त के पद ये हैं...
*"आवत बने कान्ह गोप बालक संग*
*वच्छखुर रेणु ते छुरित अकावली ॥*
*हृदय कृष्णदास वलि गिरिधरन लाल की*
*चरण नख चन्द्रिका हरित तिमिरावली"॥*
(क्रमशः)
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