शनिवार, 11 फ़रवरी 2023

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*दादू ओंकार तैं ऊपजै, अरस परस संजोग ।*
*अंकुर बीज द्वै पाप पुण्य, इहि विधि जोग रु भोग ॥*
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साभार : @Subhash Jain
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ओम तत् सत्। इन तीन शब्दों में सभी कुछ आ जाता है। ओम शब्द नहीं है, ध्वनि है। इसका कोई अर्थ नहीं है; क्योंकि सभी अर्थ मनुष्यों के दिए हुए हैं। यह अर्थातीत ध्वनि है। जैसे नदी में कल—कल नाद होता है। क्या अर्थ है कल—कल का ? कोई अर्थ नहीं है। हवाएं वृक्षों से गुजरती हैं, सरसराहट होती है। क्या अर्थ है सरसराहट का ? कोई अर्थ नहीं है। आकाश में मेघ गरजते हैं। क्या अर्थ है उस गर्जना में ? कोई भी अर्थ नहीं है। अर्थ तो आदमी के दिए हुए हैं।
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ओंकार मौलिक ध्वनि है, जिससे सब विस्तार हुआ है। उस ध्वनि के ही अलग— अलग सघन रूप अलग—अलग ढंग से प्रकट हुए हैं। उस ओंकार में कोई भी अर्थ नहीं है। तुम चाहो तो उसे अर्थहीन कह सकते हो, और चाहो तो अर्थातीत कह सकते हो। एक बात पक्की है कि वहा कोई अर्थ नहीं है। अर्थ हो नहीं सकता, क्योंकि उसके पूर्व कोई मनुष्य नहीं है।
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इसलिए हमने ओंकार को परमात्मा का प्रतीक बना लिया, क्योंकि परमात्मा कोई तुम्हारा दिया हुआ अर्थ नहीं है। परमात्मा तुम से पहले है और तुम से बाद में है। तुम में भी है, तुम से पहले भी है, तुम से बाद में भी है। परमात्मा तुम से विराट है। तुम छोटी तरंग की तरह हो, वह सागर है। तरंग कैसे सागर को अर्थ दे पाएगी ? और तरंग का दिया हुआ अर्थ क्या अर्थ रखेगा ?
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इसलिए हमने ओम परमात्मा का प्रतीकवाची शब्द चुना है। इसका हिंदुओं से कुछ लेना—देना नहीं है। अर्थ होता, तो हिंदुओं से कुछ लेना—देना होता। इसलिए यह अकेला शब्द है.। भारत में तीन धर्म पैदा हुए, चार धर्म कहना चाहिए, जैन, बौद्ध, हिंदू और सिक्ख। इनमें बड़े मतभेद हैं, बडी दार्शनिक झंझटें हैं, झगडे हैं। लेकिन ओंकार के संबंध में कोई मतभेद नहीं है।
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नानक कहते हैं, इक ओंकार सतनाम। ओम तत् सत्, इसका ही वह रूप है। जैन ओम का प्रयोग करते हैं बिना किसी अड़चन के। बौद्ध प्रयोग करते हैं बिना किसी अड़चन के। यह एक शब्द गैर—सांप्रदायिक मालूम पड़ता है। बाकी सब पर झगड़ा है। ब्रह्म शब्द का उपयोग जैन न करेंगे। आत्मा शब्द का उपयोग बुद्ध न करेंगे। लेकिन ओम के साथ कोई झगड़ा नहीं है।
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और ईसाई, इस्लाम, यहूदी, तीन धर्म जो भारत के बाहर पैदा हुए, उनके पास भी ओंकार की ध्वनि है, उसे वे ठीक से पकड़ नहीं पाए। कहीं कुछ भूल हो गई। वे उसे कहते हैं, ओमीन, आमीन। हर प्रार्थना के बाद मुसलमान कहता है, आमीन। वह ओंकार की ही ध्वनि है : वह ओम का ही रूप है।
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इसलिए यह एक ही अर्थहीन शब्द है, जो सारे धर्मों को अनुस्थूत किए हुए है। अगर दुनिया में हम कोई एक शब्द खोजना चाहें जो गैर—सांप्रदायिक है, जिसके लिए सभी धर्मों के लोग राजी हो जाएंगे, तो वह ओम है।
ओशो

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