शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

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*दादू आनन्द आत्मा, अविनाशी के साथ ।*
*प्राणनाथ हिरदै बसै, तो सकल पदार्थ हाथ ॥*
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साभार : @Subhash Jain
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प्रेम अंधा मालूम पड़ता है। क्योंकि प्रेम के पास वे ही आंखें नहीं हैं, जो बुद्धि के पास हैं। प्रेम के पास कोई दूसरी आंखें हैं। प्रेम के देखने का ढंग कोई और है। प्रेम हृदय से देखता है। और चूंकि हम इस जगत में प्रेम के कारण ही प्रविष्ट होते हैं। अपने प्रेम के कारण, दूसरों के प्रेम के कारण हम इस जगत में आते हैं। हमारा शरीर निर्मित होता है। हम अस्तित्ववान होते हैं।
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इसी प्रेम को उलटाना पड़ेगा। इसी अंधे प्रेम का नाम, जब यह जगत की तरफ से हटता है और भीतर चैतन्य की तरफ मुड़ता है, श्रद्धा है। श्रद्धा अंधा प्रेम है, लेकिन मूल—स्रोत की तरफ लौट गया। संसार की तरफ बहता हुआ वही प्रेम वासना बन जाता है। परमात्मा की तरफ लौटता हुआ वही प्रेम श्रद्धा और भक्ति बन जाती है।
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जैसा प्रेम अंधा है, वैसी भक्ति भी अंधी है। इसलिए जो बहुत बुद्धिमान हैं, उनके लिए भक्ति का मार्ग, मार्ग ही मालूम नहीं पड़ेगा। जो बहुत सोच—विचार करते हैं, जो बहुत तर्क करते हैं, जो परमात्मा के पास भी बुद्धिमानीपूर्वक पहुंचना चाहते हैं, उनके लिए भक्ति का मार्ग नहीं है।
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उनके लिए मार्ग हैं। लेकिन कृष्ण इस सूत्र में कहेंगे कि भक्ति से श्रेष्ठ उन मार्गों में कोई भी मार्ग नहीं है। किस कारण? क्योंकि बुद्धि कितना ही सोचे, अहंकार के पार जाना बहुत मुश्किल है। प्रेम छलांग लगाकर अहंकार के बाहर हो जाता है। बुद्धि लाख प्रयत्न करके भी अहंकार के बाहर नहीं हो पाती। क्योंकि जब मैं सोचता हूं तो मैं तो बना ही रहता हूं। जब मैं हिसाब लगाता हूं तो मैं तो बना ही रहता हूं। मैं कुछ भी करूं—पूजा करूं, ध्यान करूं, योग साधू—लेकिन मैं तो बना ही रहता हूं।
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भक्ति पहले ही क्षण में मैं को पार कर जाती है। क्योंकि भक्ति का अर्थ है, समर्पण। भक्ति का अर्थ है कि अब मैं नहीं, तू ज्यादा महत्वपूर्ण है। और अब मैं मैं को छोडूंगा, मिटाऊंगा, ताकि तुझे पा सकूं। यह मेरा मिटना ही तेरे पाने का रास्ता बनेगा। और जब तक मैं हूं तब तक तुझसे दूरी बनी रहेगी। जितना मजबूत हूं मैं, उतनी ही दूरी है, उतना ही फासला है। जितना पिघलूंगा, जितना गलूंगा, जितना मिटूंगा, उतनी ही दूरी मिंट जाएगी।
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गीता दर्शन--(भाग--6) प्रवचन--141
प्रेम का द्वार: भक्‍ति में प्रवेश—(प्रवचन—पहला)

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