सोमवार, 20 फ़रवरी 2023

*श्रीचैतन्य महाप्रभु की पद्य टीका*

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*कै यहु तुम को सेवक भावै,*
*कै यहु रचले खेल दिखावै ॥*
*कै यहु तुम को खेल पियारा,*
*कै यहु भावै कीन्ह पसारा ॥*
*यहु सब दादू अकथ कहानी,*
*कहि समझावो सारंग-पाणी ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद्यांश. २३४)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*श्रीचैतन्य महाप्रभु की पद्य टीका*
*गोपिन की रति देखि थके हरि,*
*या तन में किमि आत ललाई।*
*गौर तनी सब और रही बनि,*
*रंग खुल्यो१ वन अंगन२ माई ॥*
*कृष्ण शरीर हि लालप३ आवत,*
*जानत हूं फिर यूं मन आई।*
*पुत्र यशोमति होत शची सुत,*
*गौर भये गन मांझ नचाई ॥३१२॥*
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गोपीगण के अपार प्रेम के आगे श्रीकृष्णजी हार गये, तब विचार किया कि इस प्रेम का लाल रंग मेरे शरीर में कैसे आवे।
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ये सब गौर शरीर युक्त हैं और नख से शिखा तक शृंगार से सजी हुई हैं। तब उनके शोभा१ युक्त सुरंग अंगों का संग वन में करने से आपकी झलाझल श्यामता में गोपियों के अंगों२ की ललाई३ आकर समा गई।
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आपने अपने कृष्ण शरीर को गौरांग देखा। इससे मुझे जान पड़ता है कि आप के मन में यह बात आ गई कि - "अब मैं गौरांग शरीर धारण करूंगा।
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वे ही यशोदा के पुत्र अब गौरांग शची सुत 'श्रीकृष्ण चैतन्य' हुये हैं और जैसे प्रथम गोपियों के संग रास में नाचते थे, वैसे ही अब अपने प्रेमियों के गण में नाचते हैं।"
(क्रमशः)

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