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*दादू साधु गुण गहै, औगुण तजै विकार ।*
*मानसरोवर हंस ज्यूं, छाड़ि नीर, गहि सार ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ सारग्राही का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*श्रीरूप सनातनजी*
*छप्पय-*
*रूप सनातन तज्ञ दुहुँ,*
*विषय स्वाद कीन्हो बवन ॥*
*पूर्व गौड़ बंगाल, तहां को सूबो होई।*
*वैभव भूप प्रमाण, खजाना असु गज जोई ॥*
*मिथ्या सब सुख मान, चाल वृन्दावन आये।*
*प्राप्त मांहि संतोष, कुंज करवा मन भाये ॥*
*तोषसंत राधव् हृदय, भक्ति करी राधारवन ।*
*रूप सनातन तज्ञ दुहुँ, *
*विषय स्वाद कीन्हों बवन ॥२५०॥*
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रूप और सनातन दोनों विद्वानों ने सांसारिक विषय स्वाद को वमन के समान त्याग दिया था। पूर्व दिशा के गौड़ बंगाल देश के सूबे का शासक हुसैनशाह के राज्य में आप दोनों उच्च पदों पर थे और बहुत ऐश्वर्य वाले थे। दोनों के खजाने में अश्व, हाथी आदि जो भी थे सो सब राजा के समान थे। एक समय रुपये गिनते-गिनते सब रात्रि व्यतीत हो गई थी।
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इससे दोनों को वैराग्य हो गया, उस सब सुख को मिथ्या मानकर अपने गुरुजी चैतन्य महाप्रभुजी की आज्ञा से दोनों वृन्दावन चले आये थे और यथालाभ संतोष से रहते थे। केवल एक करवा(जलपात्र) और वृन्दावन के कुञ्ज, ये दो ही इनको प्रिय लगते थे। इन दोनों ने संतों के हृदय को संतोष देने के लिये श्रीराधा- कृष्ण की गुप्त भक्ति और व्रज भूमि के गुप्त रहस्य का प्रकाश किया था अर्थात् व्रज के तीर्थों का निर्णय किया था।
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विशेष - रूप सनातन बंगाल के बादशाह हुसैनशाह के मंत्री थे। उस समय बंगाल की राजधानी गौड़ नगर में थी। ये दक्षिणी ब्राह्मण थे। अपने देश से आकर बंगाल के रामकेलि नाम गाँव में बस गये थे और अपने बुद्धि बल से इनने इतना ऊँचा पद प्राप्त कर लिया था जिससे राज्य में दबीर खास और साकर मल्लिक नाम से प्रसिद्ध थे। ये दोनों इनकी पदवियाँ थीं। सनातन का असली नाम 'अमर' और रूप का नाम 'संतोष' था।
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हुसैनशाह इनको अपना दाहिना हाथ समझता था। इन्होंने बहुत धन कमाया था। रामकेलि ग्राम में ये राजा कहलाते थे। इतना होने पर भी ये भगवान् के भक्त और उदार थे। साधु सेवा करते थे। इनके छोटे भाई 'अनुपम' घर रहते थे। ये दोनों बादशाह के पास गौड़ में रहते थे। चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन जाने के बहाने हजारों भक्तों के साथ हरि नाम ध्वनि करते हुए गंगाजी के किनारे किनारे गौड़ पहुँचे। तब अमर और संतोष उनकी शरण गये।
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चैतन्य महाप्रभु ने इनका नाम सनातन और रूप रखा। सनातन के परामर्श से महाप्रभु ने इतने लोगों के साथ वृन्दावन जाने का विचार छोड़ दिया और पीछे पुरी की और लौट गये। अब रूप सनातन को वैराग्य हो गया। उनका मन राज्य, वैभव और मंत्रित्व से हट गया। सनातन की अनुमति से रूप छुट्टी लेकर अपने घर रामकेलि चले आये। रूप और अनुपम दोनों अपना धन लुटा कर वृन्दावन के लिये तैयार हो गये।
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रूप, सनातन के संतान नहीं थी। अनुपम के 'जीव' नामक एक पुत्र था। उसे थोड़ा धन दे दिया। इधर सनातन को बादशाह ने कैद कर लिया। चैतन्य महाप्रभु की वृन्दावन की यात्रा का समाचार सुनकर दोनों वृन्दावन चल पड़े और सनातन को एक पत्र लिख दिया, हम वृन्दावन जा रहे हैं आप भी किसी प्रकार छुट्टी पाकर वृन्दावन आ जाना। आवश्यक व्यय के लिए दश हजार मोदी में रख दिये हैं।
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दोनों ही परम तपस्वियों के समान चलते हुए प्रयाग में महाप्रभु से आ मिले। महाप्रभु इनसे प्रेमपूर्वक मिले और कहा-सनातन छूट गये हैं तथा मेरे पास आ रहे हैं। कई दिन दोनों महाप्रभु के पास प्रयाग में रहे। रूप को महाप्रभु ने भक्ति तत्त्व समझाकर कहा-रूप मैं काशी जाता हूँ। तुम वृन्दावन जाओ।
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रूप और अनुपम वृन्दावन की ओर चले। रूप का पत्र पाकर सनातन भी रक्षकों को कुछ देकर निकल भागे और सात हजार मुहरें देकर उनकी सहायता से रातों रात गंगा के उस पार चले गये। ईशान नामक एक नौकर साथ था उसको वापस भेजा दिया। फिर आप हाजीपुर में आए वहाँ सनातन के बहनोई श्रीकान्त मिले। उनने इनको घर लौटाने का यत्न किया किन्तु इनने कहा-मैं घर ही जा रहा हूँ।
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सनातन ने अपनी पूर्व की सारी कथा श्रीकान्त को सुना दी। श्रीकान्त ने इनको बहुत समझाया, नहीं माने तब मार्ग व्यय तथा ओढ़ने की दुशाला लेने का आग्रह किया किन्तु इनने कुछ नहीं लिया। तब श्रीकान्त रोने लगे। इससे उनके संतोष के लिए एक कम्बल लेकर चल दिये। महाप्रभु के पास काशी पहुँचकर चन्द्रशेखर के मकान के पास आते ही सनातन को हरिनाम ध्वनि सुन पड़ी। वे चन्द्रशेखर के द्वार पर जाकर बैठ गये।
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महाप्रभु को ज्ञात हो गया कि सनातन द्वार पर बैठे हैं। चन्द्रशेखर को भेजकर बुलाया। सनातन आकर महाप्रभु के चरणों में पड़ गये। महाप्रभु ने उठकरउन्हें छाती से लगाया। फिर महाप्रभु ने कहा-इनका मस्तक मुण्डन करवाकर इन्हें स्नान कराओ और नये कपड़े दो । तपन मिश्र उनको नई धोती देने लगे तब सनातन ने कहा- मुझे तो आप कोई फटा पुराणा कपड़ा दो।
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सनातन का आग्रह देखकर मिश्र ने फटी धोती दी। सनातन ने उसको दो कौपीन बना ली। श्रीकान्त का दिया हुआ सुन्दर कम्बल गंगा तट एक गरीब को देकर उसके बदले में उससे उसकी फटी गुदड़ी लेकर ओढ ली। महाप्रभु ने लगातार सनातन को दो मास तक भक्ति की उत्तम शिक्षा देकर वृन्दावन जाने को कहा और रूप, अनुपम से मिलकर श्रीकृष्ण का कार्य करने को कहा। महाप्रभु नीलाचल चले गये।
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ये वृन्दावन आये तो ज्ञात हुआ कि रूप और अनुपम दूसरे मार्ग से काशी होते हुये देश को गये। वृन्दावन में सनातन एक वृक्ष के नीचे रहते थे। प्रतिदिन वन से सूखी लकड़ियां ले जाकर बाजार में बेचते, उसी से अपना निर्वाह करते थे। कुछ समय यहाँ निवास करके फिर महाप्रभु से मिलने के लिये नीलाचल की ओर चले गये। मार्ग में आपके चर्म रोग हो गया। आप नीलाचल में पहुँच कर हरिदासजी के ठहरे। महाप्रभु उनके यहाँ प्रतिदिन आते थे। वहाँ आये तब सनातन से प्रेमपूर्वक मिले और कहा- तुम्हारे दोनों भाई यहाँ आकर दश मास रहे थे।
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फिर रूप तो पीछे वृन्दावन लौट गये हैं और अनुपम यहीं कृष्ण को प्राप्त हो गये हैं। प्रभु ने कहा- तुम यहाँ हरिदासजी के पास ही रहो। महाप्रभु प्रतिदिन वहाँ आते ही थे। कुछ दिन में सनातन प्रभु- कृपा से रोग मुक्त हो गये। फिर महाप्रभु ने सनातन को वृन्दावन जाने की आज्ञा दी। सनातन वृन्दावन चले आये। रूप भी आप गये थे। दोनों ने मिलकर वृन्दावन के उद्धार का कार्य किया। दोनों ने अनेक ग्रंथों की रचना की। दोनों भाई भिक्षा माँगकर खाते थे ॥२५०॥
(क्रमशः)
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