रविवार, 26 फ़रवरी 2023

क्या हम ईश्वर को दयामय न कहें ?

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🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
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*तिस घरि जाना वे, जहाँ वे अकल स्वरूप,*
*सोइ इब ध्याइये रे, सब देवन का भूप ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद्यांश. ४३६)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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श्रीरामकृष्ण - तो क्या हम ईश्वर को दयामय न कहें ? अवश्य कहना चाहिए जब तक हम साधना की अवस्था में हैं । उन्हें प्राप्त कर लेने पर अपने माँ-बाप पर जो भाव रहता है, वही उन पर भी हो जाता है । जब तक ईश्वर-लाभ नहीं होता, तब तक जान पड़ता है, हम बहुत दूर के आदमी हैं, दूसरे के बच्चे हैं ।
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"साधना की अवस्था में उनसे सब कुछ कहना चाहिए । हाजरा ने एक दिन नरेन्द्र से कहा था, 'ईश्वर अनन्त हैं । उनका ऐश्वर्य अनन्त है । वे क्या कभी सन्देश और केले खाने लगेंगे ? या गाना सुनेंगे ? यह सब मन की भूल है ।'
"सुनते ही नरेन्द्र मानो दस हाथ धँस गया ।
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तब मैंने हाजरा से कहा, 'तुम कैसे पाजी हो ? अगर बाल-भक्तों से ऐसी बात कहोगे तो वे ठहरेंगे कहाँ ?’ भक्ति के जाने पर आदमी फिर क्या लेकर रहे ? उनका ऐश्वर्य अनन्त हैं, फिर भी वे भक्ताधीन हैं, बड़े आदमी का दरवान बाबुओं की सभा में एक ओर खड़ा हुआ है, हाथ में एक चीज है - कपड़े से ढकी हुई, वह बड़े संकोच भाव से खड़ा हुआ है ।
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बाबू ने पूछा, 'क्यों दरवान, तुम्हारे हाथ में यह क्या है ?' दरवान ने संकोच के साथ एक शरीफा निकालकर बाबू के सामने रखा - उसकी इच्छा थी कि बाबू उसे खायँ । दरवान का भक्तिभाव देखकर बाबू ने शरीफा बड़े आदर के साथ ले लिया और कहा, 'वाह ! बड़ा अच्छा शरीफा है । तुम कहाँ से इतना कष्ट करके इसे लाये ?'
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"वे भक्ताधीन हैं । दुर्योधन ने इतनी खातिर की और कहा, 'महाराज, यहीं जलपान कीजिये ।' परन्तु श्रीठाकुरजी विदुर की कुटी पर चले गये । वे भक्तवत्सल हैं, विदुर का शाकान्न बड़े प्रेम से अमृत समझकर खाया ।
"पूर्ण ज्ञानी का एक लक्षण और है, - पिशाचवत् - न खाने पीने का विचार है, न शुचिता, न अशुचिता का ।
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पूर्ण ज्ञानी और पूर्ण मूर्ख, दोनों के बाहरी लक्षण एक ही तरह के हैं । पूर्ण ज्ञानी को देखो, गंगा नहाकर कभी मन्त्र जपता ही नहीं, ठाकुर-पूजा करते समय सब फूल एक साथ ठाकुरजी के पैरों पर चढ़ा दिये और चला आया, कोई तन्त्र मन्त्र नहीं जपा ।
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"जितने दिन संसार में भोग करने की इच्छा रहती है, उतने दिनों तक मनुष्य कर्मों का त्याग नहीं कर सकता । जब तक भोग की आशा है, तब तक कर्म हैं ।
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"एक पक्षी जहाज के मस्तूल पर अन्यमनस्क बैठा था । जहाज गंगागर्भ में था । धीरे-धीरे महासमुद्र में आ गया तब पक्षी को होश आया, उसने चारों ओर देखा, कहीं भी किनारा दिखलायी नहीं पड़ता था । तब किनारे की खोज करने के लिए वह उत्तर की ओर उड़ा । बहुत दूर जाकर थक गया । फिर भी किनारा उसे नहीं मिला । तब क्या करे, लौटकर फिर मस्तूल पर आकर बैठा । कुछ देर के बाद, वह पक्षी फिर उड़ा, इस बार पूर्व की ओर गया । उस तरफ भी उसे कहीं छोर न मिला ।
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चारों ओर समुद्र ही समुद्र था । तब बहुत ही थककर फिर जहाज के मस्तूल पर आ बैठा । फिर कुछ विश्राम करके दक्षिण ओर गया, पश्चिम ओर गया । पर उसने देखा कि कहीं ओर-छोर ही नहीं है । तब लौटकर वह फिर उसी मस्तूल पर बैठ गया । इसके बाद फिर नहीं उड़ा । निश्चेष्ट होकर बैठा रहा । तब मन में किसी प्रकार की चंचलता या अशान्ति नहीं रही । निश्चिन्त हो गया, फिर कोई चेष्टा भी नहीं रही ।"
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कप्तान – वाह ! कैसा दृष्टान्त है !
श्रीरामकृष्ण - संसारी आदमी सुख के लिए जब चारों ओर भटके फिरते हैं, और नहीं पाते, तो अन्त में थक जाते हैं । जब कामिनी और कांचन पर आसक्त होकर केवल दुःख ही दुःख उनके हाथ लगता है, तभी उनमें वैराग्य आता है - तभी त्याग का भाव पैदा होता है । बहुतेरे ऐसे हैं जो बिना भोग किये त्याग नहीं कर सकते ।
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कुटीचक और बहूदक, ये दो होते हैं । साधकों में भी बहुतेरे ऐसे हैं, जो अनेक तीर्थों की यात्रा किया करते हैं । एक जगह पर स्थिर होकर नहीं बैठ सकते । बहुत से तीर्थों का उदक अर्थात् पानी पीते है । जब घूमते हुए उनका क्षोभ मिट जाता है तब किसी एक जगह कुटी बनाकर स्थिर हो जाते हैं और निश्चिन्त तथा चेष्टाशून्य होकर परमात्मा का चिन्तन किया करते हैं ।
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"परन्तु संसार में कोई भोग भी क्या करेगा ? - कामिनी और कांचन का भोग ? वह तो क्षणिक आनन्द है । अभी है, अभी नहीं ।
"प्राय: मेघ छाये रहते हैं, वर्षा लगी हुई है; सूर्य नहीं दीख पड़ता । दुःख का भाग ही अधिक है । कामिनी-कांचनरूपी मेघ सूर्य को देखने नहीं देता ।
“कोई कोई मुझसे पूछते हैं, 'महाराज, ईश्वर ने क्यों इस तरह के संसार की सृष्टि की ? हम लोगों के लिए क्या कोई उपाय नहीं हैं ?'
(क्रमशः)

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