सोमवार, 27 फ़रवरी 2023

*२८. काल कौ अंग ८५/८८*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२८. काल कौ अंग ८५/८८*
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संसै साल१ सरीर में, तम त्रिषना बिष वास ।
अजुगति२ असन३ लिया मरै, सु कहि जगजीवनदास ॥८५॥
(१. संसै साल=सन्देह रूप कष्ट)   {२. अजुगति=अयुक्त(असम्भव)}
(३. असन-भोजन)  
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हर वस्तु को संदेह की दृष्टि से देखना कष्टकारी है । और देह में तृष्णाओं का फिर वास होना और भी कष्टकारी है ।  यह सब बिना सोचे समझे किये गये भोजन की भांति कष्टकर है ।
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कहि जगजीवन क्यों मुवा, क्यों हरि जनम्या जाइ ?
यहु सन्देह निवारिये, रांम क्रिपा करि आइ ॥८६॥   
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु आप बताइये क्यों तो यह जीव मरता है फिर प्रभु के पास जाकर कर क्यों जन्मता है । हे, प्रभु आप कृपाकर आकर हमारे इस संदेह का निवारण कीजिये ।
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आसा तृषणा मोह मन, हरि तजि भ्रमै उदास ।
यों यहु जनमैं यों मरै, सु कहि जगजीवनदास ॥८७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आशा तृष्णाओं और मोह के साथ प्रभु को भूलकर जीव भ्रमित हुआ डोलता है ।  इसलिए ही यह बार बार जन्मता और मरता है ।
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खातां सकै न बोलतां, देह अग्नि कलि काल ।
कहि जगजीवन रांम विमुख रहै, यों तन ग्रासै काल ॥८८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं की यह जीवन इतना अस्थिर है कि यह खाते या बोलते हुये भी काल का ग्रास बन सकता है जो प्रभु विमुख है उन्हें ऐसें ही काल ग्रसता है ।
(क्रमशः)  

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