🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*मंदिर माहिं सुरति समाई,*
*कोऊ है सो देहु दिखाई ॥*
*मनहिं विचार करहु ल्यौ लाई,*
*दिवा समान कहाँ ज्योति छिपाई ॥*
============
साभार : @Subhash Jain
.
#अल्बर्ट आइंस्टीन के संबंध में मैंने सुना है। भुलक्कड़ स्वभाव का आदमी था। अक्सर ऐसा हो जाता है, जो लोग जीवन की बड़ी गहन समस्याओं में उलझे होते हैं उन्हें छोटी-छोटी बातें भूल जाती हैं। जो आकाश चांदत्तारों में उलझते होते हैं उन्हें जमीन भूल जाती है। इतनी विराट समस्याएं जिनके सामने हों, उनके सामने कई दफे अड़चन हो जाती है।
.
जैसे एक बार यह हुआ कि उसको लगा, अलबर्ट आइंस्टीन को, कि आ गई बीमारी जिसकी कि डाक्टर ने कहा था। डाक्टर ने उसको कहा था कि कभी न कभी डर है, तुम्हारी रीढ़ कमजोर है, तो यह हो सकता है कि बुढ़ापे में तुम्हें झुककर चलना पड़े, तुम कुबड़े हो जाओ। एक दिन उसे लगा, सुबह ही सुबह बाथरूम में से निकलने को ही था कि आ गया वह दिन। वहीं बैठ गया।
.
घंटी बजाकर पत्नी को बुलाया, कहा डाक्टर को बुलाओ, लगता है मैं कुबड़ा हो गया। चलते ही नहीं बन रहा है मुझसे। सिर सीधा करते नहीं बन रहा है। रीढ़ झुक गई है। डाक्टर भागा गया। डाक्टर ने गौर से देखा और कहा कि कुछ नहीं है, आपने ऊपर का बटन नीचे लगा लिया है। अब उठना चाहते हो तो उठोगे कैसे ? आकाश की बातों में उलझा हुआ आदमी अक्सर इधर-उधर के बटन हो जाएं कोई आश्चर्य की बात नहीं।
.
एक मित्र के घर अल्बर्ट आइंस्टीन गया था मित्र ने निमंत्रण दिया था। फिर गपशप चली। खाना चला, फिर गपशप चली, मित्र घबड़ाने लगा, रात देर होने लगी, ग्यारह बज गए बारह बज गए। आइंस्टीन सिर खुजलाए, जम्हाई ले, घड़ी देखे, मगर जो बात कहनी चाहिए कि अब मैं चलूं वह कहे ही नहीं। एक बज गया, मित्र भी घबड़ा गया कि यह क्या रात भर बैठे ही रहना पड़ेगा !
.
अब अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे आदमी से कह भी नहीं सकते कि अब आप जाइए, इतना बड़ा मेहमान ! और देख भी रहा है कि जम्हाई आ रही है अल्बर्ट आइंस्टीन को, आंखें झुकी जा रही हैं, घड़ी भी देखता है; मगर बात जो कहनी चाहिए वह नहीं कहता।
.
आखिर मित्र ने कहा कि कुछ परोक्ष रूप से कहना चाहिए। तो उसने कहा कि मालूम होता है, आपको नींद आ रही है, जम्हाई ले रहे हैं, घड़ी देख रहे हैं, काफी नींद मालूम होती है आपको आ रही है। अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा कि आ तो रही है, मगर जब आप जाएं तो मैं सोऊं। मित्र ने कहा: आप कह क्या रहे हैं ? यह मेरा घर है !
.
तो अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा। भले मानुष ! पहले से क्यों नहीं कहा ? चार घंटे से सिर के भीतर एक ही बात भनक रही है कि यह कब कमबख्त उठे और कहे कि अब हम चले ! इतनी दफे घड़ी देख रहा हूं, फिर भी तुम्हें समझ में नहीं आ रहा। मैं यही सोच रहा कि बात क्या है ! जम्हाई भी लेता हूं, आंख भी बंद कर लेता हूं, सुनता भी नहीं तुम्हारी बात कि तुम क्या कह रहे हो। और यह भी देख रहा हूं कि तुम भी जम्हाई ले रहे हो, घड़ी तुम भी देखते, जाते क्यों नहीं, कहते क्यों नहीं कि अब जाना चाहिए।
.
आदमी करीब-करीब एक गहरे विस्मरण में जी रहा है, जहां उसे अपने घर की याद ही नहीं है; जहां उसे भूल ही गया कि मैं कौन हूं; जहां उसे भीतर जाने का मार्ग ही विस्मृत हो गया है। और इसलिए सारी अड़चन पैदा हो रही है। एक काम कर लो: भीतर उतरना सीख जाओ। और भीतर ज्योति जल ही रही है, जलानी नहीं है--बिन बाती बिन तेल ! वह दीया जल ही रहा है।
*ओशो, एक राम सारै सब काम*
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें