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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२८. काल कौ अंग ५७/६०*
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जगजीवन क्यों ऊबरै, दहँ दिसि घेरै काल ।
प्रांण पसारा करि रह्या, मूरख माया जाल ॥५७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि दशो दिशाओं से जब काल ने जीव को घेर रखा है तो वह कैसे उबरेगा । मूर्ख जीव माया में लिप्त यह नहीं देखता कि काल ने भी घेरा डार रखा है ।
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कण५ खिण कूकस६ संचिये, बहुली कीजै रासि७ ।
जगजीवन हरि भगति बिन, सकल कल की पासि८ ॥५८॥
(५. कण=अन्न का दाना) (६. कूकस=निरर्थक अंश) {७. रासि=राशि(एकत्र वस्तुओं के ढेर)} {८. पासि=पाश(बन्धन)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि छिन्न अन्न के कण को चाहे कितना और बहुत सारी मात्रा चाहे उसकी सब व्यर्थ है जैसे हरि जी की भक्ति के बिना जीव है ।
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ताती९ सीली१० लहर मैं, दहम दुःनी दुःख पाइ ।
कह जगजीवन रांमजी, क्यूं समझाऊँ ताहि ॥५९॥
{९. ताती=तप्त(गरम, उष्ण)} {१०. सीली=शीतल(ठण्डी)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि गरम ठण्डी लहर में जीव कितना दुगना दुख पाता है । संत कहते हैं यह बात तो जीव स्वयं जाने उसे क्या समझाया जाये ।
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का उपदेश पसु जीवकों, रांम बिमुख अग्यांन ।
कहि जगजीवन सब सुंणीं, इहिं खर११ आंखन कांन ॥६०॥
{११. खर=गधा(मूर्ख)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो राम विमुख जीव हैं वे पशु तुल्य हैं उन्हें क्या उपदेश करें । संत कहते हैं कि गधा भी सब देखता सुनता है पर उसका जीवन कैसा होता है । क्योंकि उसने जो सुना देखा उसे उसका बोध नहीं है ।
(क्रमशः)
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