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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२८. काल कौ अंग ८१/८४*
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जहां हेत तहां समावै, अस्थलि५ उभै निवास ।
हरिजन रांम जीव मति रांमा, सु कहि जगजीवनदास ॥८१॥
{५. अस्थलि=स्थल(कठोर एवं शुष्क भूमि)}
संतजगजीवन जी कहते है कि जहाँ प्रेम होता है वहां एक दूसरे के प्रति सहिष्णुता भी होती है । संत कहते हैं कि प्रभु के भक्त अपना जीव राम ही में मानते हैं और बुद्धि भी समझाते हुये कहते हैं कि जहां एक दूसरे के प्रति समाई होती है वहां शुष्क व कठोर भूमि में स्फुटन होता है ।
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कहि जगजीवन आपणीं, जे कोइ राखै मांम६ ।
रांम भगति करि जीतिये, महा रिपु वैरी कांम७ ॥८२॥
६. मांम=ममता(अहंकार) । ७. कांम=मैथुन की इच्छा ।
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यदि कोइ अपनी ममता प्रभु में स्थित करदे तो प्रभु भक्ति से वह कठिन काम पर भी विजय पा सकता है ।
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कांम तिनहु का कहा करै, जिनके रांम निवास ।
सरण गया सुखिया भया, सु कहि जगजीवनदास ॥८३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि काम उन का क्या कर सकता है जिनके ह्रदय में राम जी का निवास है । जो उनकी शरण में जाता ही वह ही सुखी होता है ।
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कहि जगजीवन रांम जी, क्यों ए मरि मरि जाइ ? ।
क्यों ए बिछुटैं देह थैं, कहि समझावै आइ ? ॥८४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे, प्रभु जी आप ही आकर बताईये कि यह शरीर बार बार क्यों मरता है क्यों देह से जीव बिछड़ता है ।
(क्रमशः)
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