रविवार, 26 फ़रवरी 2023

गुर दादू समझाया रे

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*दादू मेरा तेरा बावरे, मैं तैं की तज बान ।*
*जिन यहु सब कुछ सिरजिया, करता ही का जान ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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म्हे असा रे१ म्हे अेसा रे । 
थे सह जांणौं तैसा रे ॥टेक॥
गुर दादू समझाया रे । 
म्हे आंन नहीं भरमाया रे ॥
म्हांकै एक निरंजन देवा रे । 
ताकी सुर नर लागे२ सेवा रे ॥
काहे करौ लड़ाई रे । 
हम तुम नहीं सगाई रे ॥
टीलौ कहै बिचारी रे । 
यहु दहुं पषां थैं न्यारी रे ॥२८॥
(पाठान्तर : १. ‘म्हे अैसा रे’ एक बार ही है, २. ‘लागे’ नहीं है)
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हम ऐसे हैं, हम ऐसे हैं । आप सब भी हमको वैसा ही जाणो जैसा हम आपको बता रहे हैं ॥टेक॥
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प्रतिपक्षियों के कथन के उत्तर में टीलाजी कहते हैं, हमको गुरुमहाराज दादूजी ने भली प्रकार समझाया है । हम अन्यों द्वारा भ्रमित होने वाले नहीं हैं, अथवा अन्य इष्ट धारण करने के भ्रम में नहीं पड़ेंगे । हमारा इष्ट मात्र एक निरंजन देव है । तदतिरिक्त न हम किसी अन्य को जानते और न मानते हैं । हमारा निरंजन देव वही है जिसकी सेवा सुर नर सभी करते हैं ।
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अरे ! आप हमसे क्यों लड़ाई कर रहे हो । आपका और हमारा एक होना सम्भव नहीं है । टीला विचार करके अपना निर्णीत मत कहता है, हमारा विचार दोनों पक्षों से विलक्षण है । वस्तुतः सन्तों का उपास्य न कोरे ज्ञान का विषय निर्गुण-निराकार है और न भक्तिसाध्य सगुण-साकार है । वह इन दोनों से न्यारा है । वह सैद्धान्तिक रूप में पूर्णतः निर्गुण-निराकार है किन्तु जब वह भक्तों की रक्षा करता है, उन पर कृपा करके उनके योगक्षेमों का वहन करता है; तब वह सगुण-निराकार है, भक्ति द्वारा साध्य है ।
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अतः सन्तों का सिद्धांत सगुण-निराकार परमात्मा को मानने का है । वे पहले दास होकर भक्ति करते हैं । फिर ज्ञानी बनकर ऐक्य लाभ प्राप्त करते हैं । यही उनकी विलक्षणता और न्यारापन है ॥२८॥
(क्रमशः)

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