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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२८. काल कौ अंग ७७/८०*
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आइ करी कारीगरी, ते पनि ढ़ाहि२ रांम ।
कहि जगजीवन घर कर्या, कहाँ धूलि कै धाम ॥७७॥
(२. ढाही=नष्ट कर दी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव की कितनी ही कलाकारी क्यों न हो उसे रामजी उसी प्रकार ढहा देते हैं जैसे धूल के घर बालक बनाते तो हैं पर फिर वे ढह जाते हैं ।
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हरि बिन ए सब झूंठ है, घर मंदिर गढ़ कोट ।
कहि जगजीवन ऊबरैं, जे रहै रांम की वोट३ ॥७८॥
(३. वोट=शरण)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु के बिना सब घर मंदिर किले सब झूठ हैं । वे ही पार पाते हैं जो प्रभु शरण में रहते हैं ।
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कहि जगजीवन धरी४ पर, धर्या धरी का अंस ।
ते सब आंन धर्या रह्या, जब हरि खेल्या हंस ॥७९॥
(४. धरी=स्थिर वस्तु)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस धरती पर सब धरती धारक का ही अंश है । जब परमात्मा रुपी हंस खेलते हैं, जब हंस उड़ जाता है तो सब धरा ही रह जाता है ।
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मांटी मांटी सौं मिली, स्वास स्वास में बास ।
हंस समाना हेत हरि, सु कहि जगजीवनदास ॥८०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु की दी हुयी मिट्टी मिट्टी में ही मिल जाती है । हर सांस में उसकी सुगंध रहती है । कृपालु हरि हंस जैसे अपने परों से जीव की रक्षा करते हैं ।
(क्रमशः)
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